आखिरकार मणिपुर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पक्ष सुनने के लिए विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लेना पड़ा है। भारत का लोकतंत्र जिस मुकाम पर पहुंच गया है, उस पर यह एक अत्यंत नकारात्मक टिप्पणी है।
संसदीय लोकतंत्र के लिए यह बेहद अफसोस की बात है कि विपक्ष को प्रधानमंत्री से एक खास मुद्दे पर बयान दिलवाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव पेश करना पड़ा है। चूंकि संसदीय लोकतंत्र में सरकार का नेतृत्व प्रधानमंत्री करते हैं, इसलिए अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देना उनका कर्त्तव्य होता है। इसलिए संसद के मानसून सत्र की शुरुआत से मणिपुर की स्थिति पर प्रधानमंत्री से बयान की मांग कर रहे विपक्ष को आखिरकार नरेंद्र मोदी का पक्ष सुनने के लिए अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लेना पड़ा है। भारत का लोकतंत्र जिस मुकाम पर पहुंच गया है, उस पर यह एक अत्यंत नकारात्मक टिप्पणी है। पहली बात तो यह कि मणिपुर जैसी गंभीर होती जा रही समस्या पर अपेक्षित था कि प्रधानमंत्री बहुत पहले वहां के लोगों से संवाद शुरू कर चुके होते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। संसद का मौजूदा सत्र शुरू होने के दिन मणिपुर के वायरल हुए एक कलंकपूर्ण वीडियो पर उन्होंने दुख जरूर जताया, लेकिन साथ ही उन्होंने उसकी अन्य राज्यों के हाल से तुलना कर मामले को सियासी रंग भी दे दिया। उस रोज से दोनों सदनों में विपक्ष प्रधानमंत्री से वक्तव्य की मांग कर रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने उसकी अनसुनी कर रखी है। कहा जाता है कि संवाद से भरोसा बढ़ता है, जबकि संवादहीनता अविश्वास पैदा करती है। वर्तमान सरकार ने सत्ता में आने के बाद विपक्ष से संवादहीनता को एक नीति के रूप में अपना रखा है। विपक्षी नेताओं से नियमित संवाद, राष्ट्रीय एकता परिषद या राष्ट्रीय विकास परिषद जैसे मंचों को एक तरह से समाप्त कर दिया गया है, जबकि व्यापक राष्ट्रीय संवाद का वे एक उचित मंच थे। कठिन या अपने माफिक ना दिखने वाले मुद्दों पर चुप्पी नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली का हिस्सा बनी रही है। इससे दोनों पक्ष एकतरफा संवाद करते सुने जाते हैँ। इससे अविश्वास की खाई बढ़ी है और एक दूसरे के प्रति अपेक्षित सम्मान की भावना का निरंतर ह्रास हुआ है। नतीजतन लोकतांत्रिक परंपराएं आज जख्मी हाल में दिखती हैं। इन परिस्थितियों में अविश्वास प्रस्ताव का दायरा संसद तक सीमित नहीं दिखता। यह पूरे राजनीतिक माहौल को अपनी जद में ले चुका है।