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जो बोलेगा, वो जाएगा!

मोइत्रा के मामले में इथिक्स कमेटी की रिपोर्ट को सांसदों को पढ़ने का पर्याप्त समय दिया जाता और मोइत्रा को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता, तो संदेश यह जाता कि उन पर कार्रवाई न्याय की सामान्य प्रक्रियाओं के अनुरूप की गई है।

इस बात को साक्ष्यों के आधार पर कहना मुश्किल हो सकता है, फिर भी यह धारणा देश में गहराती जा रही है कि एक उद्योगपति विशेष से वर्तमान सरकार की निकटता पर बोलने वाले लोगों की खैर नहीं है! संसद में तीन सदस्यों ने ऐसा करने की कीमत चुकाई है। सबसे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द हुई, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक हस्तक्षेप से जाकर बहाल हो पाई। उसके बाद आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह के जेल जाने की नौबत आई। और अब तृणमूल कांग्रेस की सदस्य महुआ मोइत्रा की लोकसभा सदस्यता छीन ली गई है। यह तो नेताओं की बात है। पत्रकारिता में भी ऐसी कुछ मिसालें हैं, जिनके आधार पर ऐसी धारणा गहराई है। ध्यान देने की बात यह है कि अक्सर कई ऐसी धारणाओं, जिनके सिर-पैर नहीं होते, लेकिन वे भी लोगों के मन में बैठती चली जाती हैं। फिलहाल, गौरतलब यह है कि मीडिया और राजनीतिक कथानक पर सत्ताधारी पार्टी के लगभग पूरे नियंत्रण के बावजूद जनमत के एक बड़े हिस्से में उपरोक्त धारणा मजबूत होती चली गई है।

संभवतः ऐसा नहीं होता, अगर उपरोक्त नेताओं या पत्रकारों पर कार्रवाई की प्रक्रिया पारदर्शी रखी जाती और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन होता दिखता। मसलन महुआ मोइत्रा के मामले में इथिक्स कमेटी की रिपोर्ट सदन में लाने से पहले लोकसभा सदस्यों को उसे पढ़ने का पर्याप्त समय दिया जाता और मोइत्रा को उस पर अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता, तो संदेश यह जाता कि उन पर कार्रवाई न्याय की सामान्य प्रक्रियाओं का पालन करते हुए की गई है। जबकि बीते हफ्ते जिस रूप में यह संसदीय कार्रवाई हुई, उसे बहुमत के जरिए पूर्व निर्धारित निर्णय को थोपने की प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। फिलहाल, पर्याप्त सियासी बहुमत और चुनाव मशीनरी की अपनी बेजोड़ ताकत के बूते भारतीय जनता पार्टी ऐसे संदेशों और धारणाओं की परवाह नहीं कर रही है। लेकिन उसे यह याद रखना चाहिए कि उसका यह नजरिया देश और लोकतंत्र के हित में तो नहीं ही है, यह खुद उसके दीर्घकालिक भविष्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है।

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By NI Editorial

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