रणनीतिक क्षेत्र में भारत में अमेरिकी नौसैनिक बेड़ों को “मरम्मत की सुविधा” देने पर बनी सहमति को एक अहम घटना समझा जाएगा। इसका अर्थ है कि भारत ने अमेरिकी सेना के अभियानों में अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की इजाजत देने की शुरुआत कर दी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका दौरे का प्रतीकात्मक या मोदी के लिए राजनीतिक महत्त्व चाहे जो हो, लेकिन इससे भारत को तकनीक या आर्थिक क्षेत्र में कोई लाभ हुआ, यह कहने का कोई ठोस आधार नहीं है। रणनीतिक क्षेत्र में भारत में अमेरिकी नौसैनिक बेड़ों को “मरम्मत की सुविधा” देने पर सहमति बनी, उसे जरूर एक अहम घटना समझा जाएगा। इसका अर्थ यह है कि भारत ने अमेरिकी सेना के अभियानों में अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की इजाजत देने की शुरुआत कर दी है। लेकिन जीई और एचएएल कंपनियों के बीच हलके लड़ाकू विमानों के इंजन को साझा तौर पर बनाने का करार उतनी बड़ी बात नहीं है, जितना भारतीय मीडिया में बताया गया है। हलके लड़ाकू विमान के इंजनों को बनाने के लिए करार के साथ जीई कंपनी ने जो बयान जारी किया, खुद उसमें उल्लेख है कि इन दोनों कंपनियों के बीच साझा उत्पादन 1986 से चल रहा है। इसके तहत जीई-404 इंजनों का निर्माण एक दशक से पहले ही किया जा चुका था। इस बार ये कंपनी बौद्धिक संपदा भी साझा करेगी, इसका कोई जिक्र उस बयान में नहीं है। तो इस समझौते को अधिक से अधिक पहले से जारी व्यापारिक सहयोग में एक प्रगति भर कहा जा सकता है।
तीन बिलियन डॉलर के खर्च से भारत ने जिन एमक्यू रीपर ड्रोन्स को खरीदने का फैसला किया है, उनके बारे में रक्षा विशेषज्ञों ने कहा है कि उनमें मौजूद तकनीक पुरानी पड़ चुकी है। यानी भारत को जो तकनीक मिलने जा रही है, उसे अति-आधुनिक (कटिंग-एज) नहीं कहा जा सकता। इनके अलावा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग, 5-जी/6-जी, बायोटेक, अंतरिक्ष और सेमीकंडक्टर्स के क्षेत्र में सहयोग के बारे में जो बातें कही गई हैं, फिलहाल वे एक अच्छा इरादा से ज्यादा कुछ नहीं हैं। 2008 में परमाणु करार होने के समय भी बहुत ऊंची उम्मीदें जताई गई थीँ। लेकिन आज 15 साल बाद हकीकत यह है कि उसके तहत एक भी रिएक्टर चालू नहीं हुआ है। बेशक इस यात्रा से प्रधानमंत्री को अपनी बड़ी छवि पेश करने का मौका मिला है- खासकर यह देखते हुए कि इस कार्य में भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया पूरे मनोयोग से लगा हुआ था।