भारत सरकार की अगर यह गणना है कि अपनी चीन संबंधी चिंताओं के कारण पश्चिम हर हाल में भारत पर अपना दांव लगाए रखेगा, तो कहा जा सकता है कि इस सोच का ठोस आधार नहीं है। इसलिए मौजूदा नीति पर पुनर्विचार जरूरी हो गया है।
देर-सबेर भारतवासियों को नरेंद्र मोदी सरकार के कनाडा के 41 राजनयिकों को देश से निकालने के फैसले पर अडिग रहने के परिणामों पर अवश्य ही विचार करना होगा। कनाडाई राजनयिकों के लौटने के बाद अमेरिका और ब्रिटेन की तीखी प्रतिक्रिया पश्चिमी खेमे से भारत के बढ़ते दुराव का संकेत देती है। मुद्दा यह है कि क्या इस वक्त पर इस खेमे से ऐसा टकराव भारत के दीर्घकालिक हित में है? कुछ समय पहले तक भारत सरकार के रणनीतिकार कहते थे कि एक समय देश निगुर्टता- यानी किसी भी महाशक्ति की तरफ झुकाव ना रखने की नीति (नॉन-एलाइंग्ड) पर चलता था, जबकि मोदी सरकार सबके साथ रिश्ता रखने (ऑल-एलाइंग्ड) की राह पर चल रही है। मगर कुछ महीनों के भीतर चीजें इस तरह बिगड़ी हैं कि अब भारत सबसे टकराव मोल लेता नजर आ रहा है। बेशक चीन-पाकिस्तान से रिश्तों में कड़वाहट की लंबी पृष्ठभूमि है। ऐसे में उपयुक्त नीति यह मानी जाती थी कि पास-पड़ोस के अन्य देशों को भारत उन दोनों के पाले में ना जाने दे। जबकि हाल में श्रीलंका, नेपाल, भूटान और मालदीव ने जिस तरह चीन के साथ जुड़ाव बढ़ाया है, उससे नहीं लगता कि भारत सरकार पास-पड़ोस में कोई प्रभावी विदेश नीति अपना रही है।
उधर हमास के हमलों के बाद पहले भारत सरकार ने पूरी तरह इजराइल के पक्ष में खड़े होकर और फिर अरब एवं खाड़ी देशों में हुई आलोचना के बाद फिलस्तीन के पक्ष में अपनी परंपरागत नीति जता कर दोनों तरफ भ्रम बना दिया है। इन घटनाक्रमों के बीच कूटनीति विशेषज्ञों के लिए यह समझना कठिन हो गया है कि भारत कहां खड़ा है और वैश्विक मामलों में उसकी क्या सोच है? अमेरिका-ब्रिटेन की प्रतिक्रिया को इसी प्रश्न के आईने में देखा जाना चाहिए। उनसे भी दुराव कर अकेले पड़ने की यह नीति कतई देश के हित में नहीं है। भारत सरकार की अगर यह गणना है कि अपनी चीन संबंधी चिंताओं के कारण पश्चिम हर हाल में भारत पर अपना दांव लगाए रखेगा, तो कहा जा सकता है कि इस सोच का ठोस आधार नहीं है। इसलिए मौजूदा नीति पर पुनर्विचार जरूरी हो गया है।