पश्चिम एशिया में बुनियादी मुद्दे जहां के तहां हैं। जब तक पश्चिम एशिया में व्यापक शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती और फिलस्तीनी मसले का हल नहीं निकलता, लड़ाईबंदी की हर कोशिश के क्षणिक साबित होने की आशंका बनी रहेगी।
अमेरिका और फ्रांस की पहल पर आखिरकार इजराइल और हिज्बुल्लाह युद्धविराम के लिए सहमत हुए। युद्धविराम बुधवार तड़के चार बजे लागू हुआ। मगर पहले ही दिन इजराइली सैनिकों की तरफ से इसके उल्लंघन की खबर भी आ गई। युद्धविराम लागू होते ही दक्षिणी लेबनान से विस्थापित हुए लोग अपने घरों को लौटने लगे। शायद उनका जश्न इजराइली फौजियों से बर्दाश्त नहीं हुआ, तो उन्होंने सीमा पार से उन पर फायरिंग कर दी। हालांकि यह उल्लंघन प्रतीकात्मक ही रहा, मगर इससे दोनों पक्षों के बीच मौजूद कड़वाहट का संकेत जरूर मिला है। वैसे भी युद्धविराम को दोनों ही पक्षों ने अपने लिए सांस लेने- यानी ताकत को पुनर्संगिठत करने- का मौका माना है। पिछले साल सात अक्टूबर को हमास के हमलों के बाद जब इजराइल ने गजा में मानव-संहारी हमले शुरू किए, तभी हिज्बुल्लाह ने युद्ध का एलान किया था।
पिछले सितंबर में आकर दोनों की लड़ाई तेज हो गई। हवाई हमलों से इजराइल ने हिज्बुल्लाह को भारी क्षति पहुंचाई। लेबनान में चार हजार से ज्यादा आम नागरिकों को भी मार डाला। लेकिन जमीनी हमलों में उसे पूरी नाकामी हाथ लगी। उधर हिज्बुल्लाह के रॉकेट, ड्रोन एवं मिसाइल हमलों से इजराइल के अंदर छिटपुट नुकसान होने की खबरें लगातार आ रही थीं। कुल सूरत ऐसी बनी, जिसमें दोनों पक्षों के लिए युद्ध जारी रखना नुकसान का सौदा बन गया। इसी पृष्ठभूमि में युद्धविराम पर वे सहमत हुए हैँ। परंतु बुनियादी मुद्दे जहां के तहां हैं। इसीलिए युद्धविराम की सफलता संदिग्ध बनी हुई है।
यह तो साफ है कि जब तक पश्चिम एशिया में व्यापक शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती और फिलस्तीनी मसले का हल नहीं निकलता, लड़ाईबंदी की हर कोशिश के क्षणिक साबित होने की आशंका बनी रहेगी। तो मूल प्रश्न है कि क्या इजराइल- हिज्बुल्लाह युद्धविराम से व्यापक शांति प्रक्रिया की कोई संभावना बनेगी? ऐसा होगा या नहीं, यह काफी कुछ उन्हीं देशों के रुख से तय होगा, जिनकी पहल पर ताजा घटनाक्रम संभव हुआ है। अमेरिका में जनवरी में सत्ता परिवर्तन के साथ चूंकि नई परिस्थितियां बनेंगी। इसीलिए ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का लड़ाईबंदी पर क्या रुख रहता है?