आयोजन से जुड़े कई प्रतिनिधियों को यह कहते सुना गया कि इस मुद्दे पर अलग से बातचीत की जरूरत थी, जो अब शुरू हुई है। यानी फिलहाल यही संतोष की बात है कि ऐसी बात शुरू हो गई है।
दुनिया में एक नया वित्तीय करार करने के इरादे से पेरिस में पिछले हफ्ते हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन से ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। इसलिए आयोजन से जुड़े कई प्रतिनिधियों को यह कहते सुना गया कि इस मुद्दे पर अलग से बातचीत की जरूरत थी, जो अब शुरू हुई है। यानी फिलहाल यही संतोष की बात है कि ऐसी बात शुरू हुई है। दो दिन के इस सम्मेलन के लिए पेरिस में करीब 1,500 प्रतिभागी जुटे। इनमें 40 राष्ट्र प्रमुख भी शामिल थे। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने सम्मेलन के समापन समारोह में कहा- ‘इन दो दिनों ने हमें मौका दिया है कि हम धरती के लिए एक नई सहमति बना सकें। हम इस दौरान एक ऐसे दस्तावेज पर सहमति बना पाए हैं जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे और उसके संचालन में सुधार के प्रति एक साझा राजनीतिक नजरिये को प्रतिबिंबित करता है।’ सम्मेलन में कहा गया कि दुनिया कई तरह के संकट झेल रही है। बीते कुछ बरसों में कोविड-19 महामारी की वजह से गरीबी और सार्वजनिक ऋण संकट आसमान तक पहुंच चुके हैं। ज्यादा से ज्यादा विकासशील देश डिफॉल्ट के कगार पर हैं।
जलवायु परिवर्तन अपना असर और ज्यादा दिखा रहा है और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के प्रति लोगों का भरोसा टूटा है। ऐसे में पहली बार विश्व नेता इन चुनौतियों पर बात करने के लिए साथ आए हैं। यह तो साफ हो चुका है कि अभी जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान हैं, वो इस तरह कि परिस्थिति से निपटने में सक्षम नहीं हैं। इनमें विश्व बैंक और आईएमएफ प्रमुख हैं। 1944 में हुए ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट के तहत वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ बनाए गए। इनकी अगुवाई भी अमेरिका और जी-7 के देश करते हैं। शिकायत यह है कि ये संस्थान ऊपर से नीचे की तरफ निर्देश पास करने वाले सिस्टम की तरह काम करते हैं। जबकि जरूरत यह है कि गरीब देशों को भी फैसले करने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए। इसलिए विकासशील देशों की तरफ वित्तीय ढांचे में बदलाव की मांग पुरजोर ढंग से उठी है। इसी के दबाव में धनी देश नए करार पर बात शुरू करने के लिए मजबूर हुए हैँ।