यह बात शायद ही किसी के गले उतरेगी कि दोनों सदनों में संविधान के 75 साल पूरा होने के मौके पर दो-दो दिन की बहस या समाजवादी पार्टी को संभल के मुद्दे पर बोलने का मौका देना सरकार का झुकना है।
संसद की कार्यवाही ना चलने देने के मुद्दे पर आखिरकार सरकार अपनी मनवाने में सफल रही। यह संभव हुआ, क्योंकि विपक्षी दलों के बीच रणनीति को लेकर बिखराव हो गया। अडानी और मणिपुर जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए सरकार को मजबूर करने की कांग्रेस की प्राथमिकता से क्षेत्रीय दलों के मतभेद इतने गहराए कि वह अलग-थलग पड़ गई। उन दलों की अपनी प्राथमिकताएं हैं, जिन्हें सदन में उठाकर अपने समर्थक तबकों को वे संदेश देना चाहते हैं। वैसे भी किसी बड़े पूंजीपति के मुद्दे पर एक सीमा से ज्यादा जोर देना ज्यादातर दलों को अपने माफिक नहीं लगता। यह बात शायद ही किसी के गले उतरेगी कि दोनों सदनों में संविधान के 75 साल पूरा होने के मौके पर दो-दो दिन की बहस या समाजवादी पार्टी को संभल के मुद्दे पर बोलने का मौका देना सरकार का झुकना है।
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संविधान के लिए भारतीय जनता पार्टी सरकार को खतरा बताने की विपक्ष- खासकर कांग्रेस की रणनीति वैसे भी परवान नहीं चढ़ी है। हकीकत यह है कि संविधान को आरक्षण के समानार्थी बताते हुए इसके रक्षक के रूप में खुद को पेश कर विपक्ष ने भी इस मुद्दे के साथ न्याय नहीं किया है। पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व एवं पहचान के मुद्दे पर भाजपा को घेरना एक भटकी रणनीति साबित हुई है। इसीलिए इसका चुनावी लाभ भी ये दल नहीं उठा पाए हैं। चूंकि विपक्षी दल अपनी एकता के लिए बड़े साझा मकसद की तलाश नहीं कर पाए हैं, इसलिए संसदीय गतिरोध की रणनीति का जो हश्र हुआ, उसका अनुमान लगाया जा सकता था।
बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि देश के सामने जो सबसे ज्वलंत मुद्दे हैं, संसद में उन ही बहस नहीं होगी, तो फिर प्रभावित एवं पीड़ित लोगों की निगाह में इस मंच का क्या महत्त्व रह जाएगा? संसद की प्रमुख भूमिका बेशक विधायी कार्यों को निपटाना है, मगर यह राष्ट्रीय चिंताओं और जन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच भी है। ऐसी अभिव्यक्तियों के अवसर को सीमित करना लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है। बेहतर होगा, सभी पक्ष फौरी हार-जीत की मानसिकता से उठ कर इस गंभीर पहलू पर विचार करें।