वक्फ़ (संशोधन) विधेयक संबंधी संसदीय समिति की कार्यवाही जिस विवादास्पद ढंग से चली और विपक्षी सांसदों की राय को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया, उसके मद्देनजर संसदीय समिति की सारी प्रक्रिया समय की बर्बादी ही मालूम पड़ती है।
वक्फ़ बोर्ड (संशोधन) विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति की कार्यवाही जिस तरह चली, उससे संसदीय समिति की परिपाटी पर बुनियादी सवाल और गहरा गए हैं। विधेयकों को अंतिम रूप देने के लिए संसदीय समितियों का गठन इस मकसद से हुआ था, ताकि कोई कानून बनने के पहले उस पर राजनीतिक दायरे में अधिकतम आम सहमति तैयार हो सके। दरअसल, राजनीति-शास्त्र में कानून को परिभाषित ही ऐसे नियम-कायदों के रूप में किया है, जिन पर समय-विशेष में समाज के भीतर अधिकतम सहमति हो। लोकतंत्र में तमाम राजनीतिक दल किसी ना किसी खास विचार और हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसलिए किसी कानून के न्यायपूर्ण होने की धारणा स्थापित होने और उस पर अधिकतम अमल की संभावना को दुरुस्त करने के लिए विभिन्न दलों के बीच मोटी सहमति जरूरी मानी जाती है। लेकिन जिस तरह विपक्ष की राय को पूरी तरह दरकिनार कर संयुक्त संसदीय समितियां एकपक्षीय रिपोर्ट पेश कर रही हैं, उनसे यह सवाल उठा है कि ऐसे में इस प्रक्रिया की जरूरत ही क्या है? अगर सत्ता पक्ष की मंशा के मुताबिक ही विधेयकों को पारित करना है, तो फिर संसद में जब बिल पेश किया जाता है, तभी उसे पास कराने की रस्म-अदायगी भी पूरी की जा सकती है।
वक्फ़ विधेयक संबंधी संसदीय समिति की कार्यवाही जिस विवादास्पद ढंग से चली, विपक्षी सांसदों की राय को नजरअंदाज किया गया- यहां तक कि एक दिन तो उनका निलंबन भी हुआ- और आखिर में सिर्फ एनडीए सदस्यों के संशोधनों को मंजूर किया गया, उसके मद्देनजर संसदीय समिति की सारी प्रक्रिया समय की बर्बादी ही मालूम पड़ती है। उलटे यह और कड़वाहट छोड़ गई है। संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट को 15-11 के बहुमत से पारित किया। लाजिमी है कि विपक्षी सांसदों ने अपनी असहमत रिपोर्ट तैयार की है। इस तरह बात घूम-फिर कर वहीं पहुंच गई है, जहां से उसकी शुरुआत हुई थी। संसद में सत्ता पक्ष का बहुमत है, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मंशा के मुताबिक वह बिल को कानून का रूप दे देगा। मगर इससे सियासी आम-सहमति बनाने और बिल को समाज में सर्व-स्वीकृति दिलाने का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा।