चुनावों में विश्वसनीयता का मुद्दा सर्वोपरि है। इसे सुनिश्चित करने के लिए तमाम व्यावहारिक दिक्कतें स्वीकार की जा सकती हैं। इसलिए यह तर्क बेमायने है कि अगर सभी वीवीपैट पर्चियों या मतपत्रों की गिनती हुई, तो उसमें 12 दिन लगेंगे।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याद दिलाया कि जब मतपत्रों के जरिए मतदान होता था, तब क्या होता था। स्पष्टतः जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ का इशारा उस दौर में होने वाली मतदान संबंधी धांधलियों की तरफ था। कहा जा सकता है कि उस दौर की याद दिला कर खंडपीठ ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर चल रही बहस के संदर्भ को विस्तृत किया है। बेशक तब अनेक प्रकार की गड़बड़ियों की शिकायतें आती थीं। बूथ कब्जे से लेकर मतगणना के दौरान मतपत्रों की गड्डियां बनाते वक्त हेराफेरी के संदेह तब आम थे।
इसीलिए जब ईवीएम के जरिए मतदान शुरू हुआ, तो इसे एक प्रगति के रूप में देखा गया था। दरअसल, खंडपीठ की इस टिप्पणी से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है कि मशीनों में अपने-आप में कोई समस्या नहीं है, बल्कि मुश्किल तब आती है, जब वे इनसानी पूर्वाग्रह का शिकार हो जाती हैं। बहरहाल, असल समस्या यही पूर्वाग्रह है। ईवीएम को लेकर विवाद इसलिए ही उठे हैं, क्योंकि इन मशीनों की प्रोग्रामिंग और कोडिंग की प्रक्रिया में निष्पक्षता ना बरते जाने के बारे में विभिन्न हलकों से संदेह जताए जाने लगे हैं। शक का माहौल आज इतना गहरा गया है कि समाज के एक बड़े हिस्से में चुनाव परिणामों की स्वीकृति का भाव घटता जा रहा है।
यह लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि इस मसले पर विचार करते समय इसी बिंदु को केंद्र में रखा जाए और उसका वाजिब हल निकाला जाए। चुनावों में विश्वसनीयता का मुद्दा सर्वोपरि है। इसे सुनिश्चित करने के लिए तमाम व्यावहारिक दिक्कतें स्वीकार की जा सकती हैं। इसलिए निर्वाचन आयोग का यह तर्क बेमायने है कि अगर सभी वीवीपैट पर्चियों या मतपत्रों की गिनती हुई, तो उसमें 12 दिन लगेंगे। अगर 80 दिन तक चुनाव प्रक्रिया चल सकती है, तो 12 तक की गिनती से आखिर क्या आसमान टूट पड़ेगा? आवश्यकता ऐसे तर्कों को खारिज करते हुए ऐसा सर्वमान्य हल निकालने की है, जिससे भारतीय चुनावों की साख दुनिया भर में बनी रहे।