उत्तराखंड के जंगलों में आग फैलने के कारण धीरे-धीरे बने हैं। आरोप है कि कृत्रिम पेड़-पौधों की खेती में स्वार्थ रखने वाले वन और भू-माफिया, कुछ संगठनों और सरकारी विभागों की दिलचस्पी भी प्राकृतिक वन को जला डालने में रही है।
उत्तराखंड के जंगलों में लगभग लगी आग अब जानलेवा हो गई है। कई वन क्षेत्रों में लगी इस आग से पिछले तीन दिन में पांच लोगों की जान चली गई है। अल्मोड़ा में आग ने इतना भयंकर रूप लिया कि वहां के प्रसिद्ध दुनागिरी मंदिर में इकट्ठे श्रद्धालुओं को जैसे-तैसे अपनी जान बचा कर भागना पड़ा। आग का एक अन्य दुष्प्रभाव यह हुआ है कि बहुत बड़े इलाके में धूल और धुआं माहौल में भर गए हैं, जिससे लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है। कुछ जगहों पर जंगल के जल जाने के कारण चट्टान खिसकने और भू-स्खलन जैसी घटनाएं भी हुई हैं। यानी कुल मिलाकर बर्बादी का आलम है। इसके बावजूद अब तक आग के वास्तविक कारणों पर ध्यान देने की किसी पहल के संकेत नहीं मिले हैँ। अधिकारियों ने सारा दोष आम लोगों पर डाल देने की कोशिश की है। कुछ रोज पहले बताया गया था कि रुद्रप्रयाग में आग लगाने के आरोप में तीन व्यक्ति गिरफ्तार किए गए हैं। आरोप है कि इन लोगों ने पशुओं को चराने की अनुकूल जगह बनाने के लिए आग लगाई।
मुमकिन है कि इस बात में सच्चाई हो। लेकिन, जैसाकि पर्यावरणविदों ने ध्यान दिलाया है, आग लगने के कारण धीरे-धीरे बने हैं। आरोप है कि कृत्रिम पेड़-पौधों की खेती में स्वार्थ रखने वाले वन और भू-माफिया, कुछ संगठनों और सरकारी विभागों की दिलचस्पी भी प्राकृतिक वन को जला डालने में होती है। आग लगने के कारणों सूखा, देवदार के पेड़ों का विस्तार, ग्रामीणों को वन संरक्षण के कार्य के दूर रखना, और समय पर आग से बचाव के उपाय ना करना भी शामिल हैं। फिर बड़ी आवश्यकता यह है कि भारतीय वनों की प्रकृति को समझा जाए, जो कुदरती तौर पर अमेरिका, ब्राजील या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों से अलग हैं। यहां वे उपाय कारगर नहीं हो सकते, जो उन देशों में अपनाए गए हैं। मगर इस पर तभी पूरी समझ बन सकती है, जब सरकारें निहित स्वार्थों से टकराने और सार्वजनिक हित में काम करने के लिए प्रतिबद्ध हों। तभी कुछ गिरफ्तारियां दिखाकर पल्ला झाड़ लेने की जारी प्रवृत्ति पर विराम लग सकता है।