Unified Pension Scheme: बुढ़ापा सुरक्षित होना चाहिए, लेकिन यह बात तो समान रूप से सब पर लागू होनी चाहिए। ऐसा सिर्फ स्वास्थ्य, परिवहन आदि सस्ती सेवाएं उपलब्ध करवा कर और देश की सकल आर्थिक स्थिति के अनुपात में न्यूनतम नकदी ट्रांसफर से ही संभव है। (Unified Pension Scheme)
इसके कम ही प्रमाण मौजूद हैं कि सरकारी कर्मचारी जातिगत, सांप्रदायिक आदि आग्रहों से उठ कर पेशागत पहचान के आधार पर सामूहिक मतदान करते हैं।, फिर भी ये आम धारणा है कि वे बहुत बड़ा संगठित वोट बैंक है। अब चूंकि लोकसभा चुनाव के हालिया नतीजों ने हिंदुत्व के एजेंडे से सियासी बहुमत जुटा लेने का भाजपा का आत्म-विश्वास तोड़ दिया है, तो नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के लिए पेंशन योजना का नया संस्करण घोषित किया है।
also read: मायावती के वोट के लिए अखिलेश का सद्भाव
केंद्र ने बीच का रास्ता अपनाया
कहा गया है कि इससे कर्मचारियों को नौकरी के आखिरी वर्ष में मिली औसत बेसिक सैलरी का 50 प्रतिशत पेंशन के रूप में मिलने की गारंटी हो जाएगी। इस तरह पुरानी पेंशन व्यवस्था का लाभ बहाल हो जाएगा। अंतर सिर्फ यह होगा कि ताजा एकीकृत पेंशन योजना में कर्मचारियों के मासिक वेतन के दस फीसदी योगदान की शर्त बनी रहेगी। साथ ही उन्हें मिलने वाला लाभ बाजार संबंधित बना रहेगा। यानी केंद्र ने बीच का रास्ता अपनाया है।
केंद्र पर 7,250 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ
इसके बावजूद इस योजना को लागू करने पर पहले वर्ष में केंद्र पर 7,250 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि 2023-24 में पेंशन पर केंद्र का कुल खर्च दो लाख 30 हजार करोड़ और राज्य सरकारों का पांच लाख 20 हजार करोड़ रुपये था। यह उनके कुल साझा राजस्व का 12 फीसदी हिस्सा है। क्या वोट बैंक राजनीति के दबाव में कुल श्रमिक वर्ग के बीच एक छोटे हिस्से पर इतना खर्च करना विवेक-सम्मत है?
बुढ़ापा सुरक्षित होना चाहिए, लेकिन यह बात तो समान रूप से सब पर लागू होनी चाहिए। ऐसा सिर्फ स्वास्थ्य, परिवहन आदि सस्ती सेवाएं उपलब्ध करवा कर और देश की सकल आर्थिक स्थिति के अनुपात में न्यूनतम नकदी ट्रांसफर से ही संभव है। अपने भविष्य के बाकी नियोजन की जिम्मेदारी व्यक्ति पर छोड़ी जा सकती है। यह सोच अपने-आप में समस्याग्रस्त है कि सरकारी नौकरी भाग्यशाली लोगों को मिलती है, जिनका सब कुछ सुरक्षित हो जाता है। बाकी लोग भगवान भरोसे हैं। बहरहाल, जब सियासत का मतलब वोट जुटाने की विवेकहीन होड़ से शामिल होना रह गया हो, तब समाज के व्यापक कल्याण की बातें निरर्थक मालूम पड़ने लगती हैं।