अतीत में बड़े देशों ने जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लिया, जिसकी भारी कीमत दुनिया को चुकानी पड़ रही है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव अब वर्तमान पीढी को अपने जीवनकाल में ही भुगतने पड़ रहे हैँ। क्या अब दुनिया इस मसले को गंभीरता से लेगी?
अगले 30 नवंबर से दुबई में शुरू होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन से ठीक पहले दो समझौतों से उम्मीद बंधी है कि ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की दिशा में अब कुछ प्रगति हो सकेगी। इनमें एक समझौता अमेरिका और चीन के बीच हुआ है, जो दुनिया में कार्बन गैसों के सबसे बड़े दो उत्सर्जक हैं। दूसरा समझौता यूरोपियन यूनियन (ईयू) में शामिल देशों के बीच हुआ है। अमेरिका और चीन राजी हुए हैं कि वे मिल कर ग्लोबल वॉर्मिंग का मुकाबला करेंगे। दोनों देश एक साझा कार्यदल बनाएंगे। यह कार्यदल ऊर्जा संक्रमण, मीथेन उत्सर्जन, निम्न उत्सर्जन वाले विकास कार्यक्रमों पर अमल, जंगलों की कटाई रोकने आदि जैसी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करेगा। उधर ईयू में हुए समझौते के तहत इसमें शामिल देश जीवाश्म ईंधन के उद्योगों में मीथेन गैस के उत्सर्जन की निगरानी करने और इसका रिसाव रोकने के नए कदम उठाएंगे। लेकिन गौरतलब है कि यह अभी एक प्रोविजनल संधि है। इसे तभी कानूनी दर्जा मिलेगा, जब समझौते में शामिल सभी देश इसका अनुमोदन कर देंगे। ईयू भी एक बड़ा उत्सर्जक है।
दो साल पहले तक जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में सबसे प्रभावी कदम ईयू में उठाए गए थे। लेकिन यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद इन देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाया, जिससे वहां प्राकृतिक गैस की किल्लत हो गई। नतीजतन, ईयू के सदस्य कई देश जीवाश्म ऊर्जा को फिर से अपनाने लगे। उधर अमेरिका में तो कभी भी उत्सर्जन रोकने के कदम गंभीरता से नहीं उठाए गए। अब दुबई में होने वाली कॉन्फ्ररेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-28) से ठीक पहले इन देशों का फिर से उत्सर्जन रोकने का इरादा जताना सकारात्मक दिशा में है। बहरहाल, चूंकि अतीत में ऐसे समझौतों पर अमल का रिकॉर्ड बेहतर नहीं है, इसलिए ताजा समझौतों से क्या हासिल होगा, इसको लेकर संदेह बना रहेगा। अतीत में बड़े देशों ने जलवायु परिवर्तन की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया, जिसकी बहुत भारी कीमत दुनिया को चुकानी पड़ रही है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव अब वर्तमान पीढी को अपने जीवनकाल में ही देखने और भुगतने पड़ रहे हैँ। क्या अब दुनिया इस मसले को गंभीरता से लेगी?