किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए राजनीतिक विचार-विमर्श में भाग ना लेने की शर्त कैसे थोपी जा सकती है? किसी विरोध में भाग ना लेने का वचन दाखिले से पहले ही कैसे लिया जा सकता है?
भारत में अन्य स्थलों की तरह ही शिक्षा संस्थानों में भी असहमति या विरोध जताना जोखिम भरा हो चुका है, यह आम तुजर्बा है। लेकिन पूर्व शर्त के तौर पर दाखिले से पहले इस पर हामी भरवाना एक नई घटना के रूप में सामने आया है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि अभी तक जो चलन व्यवहार में था, उसे अब लिखित एवं औपचारिक रूप दिया जा रहा है। खबर मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) से है। वहां लागू नए हॉनर कोड के तहत छात्रों को दाखिले से पहले यह वचन देना होगा कि वे किसी “राजनीतिक और व्यवस्था विरोधी गतिविधियों तथा देशभक्ति विहीन चर्चाओं” आदि में हिस्सा नहीं लेंगे। वे ऐसे प्रदर्शनों या धरना आदि में भाग नहीं लेंगे, जिनसे संस्थान के “शैक्षिक वातावरण में रुकावट” पड़ती हो। हॉनर कोड पर दस्तखत की रवायत 2017 में शुरू की गई थी, जिसमें अब नई शर्तें जोड़ी गई हैँ। टिस एक मानित (डीम्ड) विश्वविद्यालय है। इसकी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा टाटा ग्रुप से आता है।
इस संस्थान ने भारत में जातीय एवं अन्य अस्तमिता आधारित विमर्श को फैलाने में अहम भूमिका निभाई है। इससे जनमत के एक बड़े हिस्से में यह धारणा बनी कि यह प्रगतिशील विचारों का वाहक संस्थान है। मगर देश में बदले माहौल का असर वहां भी हुआ। हाल के वर्षों ऐसे कई घटनाएं हुई हैं, जिनसे पुरानी धारणा को चोट पहुंची। बहरहाल, ये सवाल सिर्फ किसी संस्थान विशेष का नहीं है। मुद्दा यह है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिले के लिए राजनीतिक विचार-विमर्श में भाग ना लेने की शर्त कैसे थोपी जा सकती है? साथ ही किसी विरोध में भाग ना लेने का वचन दाखिले से पहले ही कैसे लिया जा सकता है? आखिर किसी भी संस्थान में, कभी कोई ऐसा मसला खड़ा हो सकता है, जिसका विरोध करना छात्र जरूरी समझें। विरोध की हर गतिविधि से सामान्य वातावरण में बाधा आती है। इसलिए हॉनर कोड की नई शर्तों के प्रति छात्र समुदाय का प्रतिरोध उचित है। बेहतर होगा कि प्रशासन इन्हें तुरंत वापस ले ले।