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संवैधानिक भावना पर बल

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ऐसा लगता है कि उन पार्टियों को भी, जो कभी संवैधानिक भावना के अनुरूप धर्मनिपरपेक्षता की बात करती थीं, हिंदुत्व की गंगा में तैरना अब अधिक फायदेमंद लगता है। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार भी इस गंगा में कूद पड़े हैं।

यह तथ्य पहले ही सामने आ गया था कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने बिना पर्याप्त सबूत के, संभवतः जानबूझ कर, तिरुपति लड्डू विवाद उछाला। जिन प्रयोगशालाओं में लड्डू में इस्तेमाल हुए घी की जांच की गई थी, वहां के विशेषज्ञों ने कुछ सैंपलों में मिलावट का शक जरूर जताया था। मगर उन्होंने यह नहीं कहा था कि उसमें पशु चरबी की मिलावट है। यह पूरी कहानी चंद्रबाबू नायडू ने सियासी फायदे के लिए बनाई। चूंकि पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ईसाई धर्मावलंबी हैं, इसलिए चंद्रबाबू को लगा होगा कि यह मामला उठा कर रेड्डी के राजनीतिक करियर को स्थायी रूप से खत्म किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां इस सच्चाई की पुष्टि हैं। कोर्ट ने चंद्रबाबू नायडू को सलाह दी है कि वे कम-से-कम ईश्वर को सियासत से दूर रखें। मौजूदा हकीकत के बीच इस संवैधानिक भावना का अनुपालन अति-आशावादी नजर आता है। यह दौर राजनीतिक मकसदों के लिए धर्म का बढ़-चढ़ कर दुरुपयोग करने का है। दरअसल, ऐसा करने की क्षमता सियासी कामयाबी का पैमाना बन गई है।

सुप्रीम कोर्ट ने ये तथ्य दोहराया कि अब तक तिरुपति लड्डुओं में पशु चरबी की मिलावट का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लेकिन कोर्ट की इस टिप्पणी से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। जैसेकि इस बारे में विशेषज्ञों की मीडिया में आई प्रतिक्रिया का उस पर कोई असर नहीं हुआ। वह अपने पास मौजूद कथित सबूत पर टिकी हुई है। ऐसा लगता है कि उन पार्टियों को भी, जो कभी संवैधानिक भावना के अनुरूप धर्मनिपरपेक्षता की बात करती थीं, हिंदुत्व की गंगा में तैरना अब अधिक फायदेमंद लगता है। अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में अयोध्या स्थित मंदिर बनवाने में उनकी भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की। साथ ही सीतामढ़ी जिले में सीता के जन्मस्थल (जैसीकि मान्यता है) पर भव्य मंदिर बनवाने का इरादा जताया। विडंबना है कि जून में चुनाव नतीजा आने के बाद बहुत से लोगों ने चंद्रबाबू और नीतीश कुमार से ही नरेंद्र मोदी के एजेंडे पर लगाम लगाने की आस जोड़ी थी!

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