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हताशा का आलम

जहां युवा बेरोजगारी असामान्य रूप से ऊंची हो और खाद्य मुद्रास्फीति लगातार आठ प्रतिशत से ऊपर हो, वहां कैसी जिंदगी की कल्पना की जा सकती है? अप्रैल के जारी ताजा आंकड़ों में भी खाद्य मुद्रास्फीति 8.7 प्रतिशत दर्ज हुई है।

कुवैत में विदेशी मजदूरों के एक रहवास में हुए भयंकर अग्निकांड में मरे 49 लोगों में तकरीबन 40 भारतीय हैं। उधर रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में भाड़े के सैनिक के तौर पर गए दो और भारतीयों की मौत हो गई है। ये भारतीय उन 30 लोगों से अलग हैं, जिनके परिजनों ने भारत सरकार से संपर्क किया था। मतलब यह कि रूस की तरफ से लड़ने के लिए जिन भारतीयों को बहला-फुसला कर ले जा गया गया, उनकी संख्या उससे कहीं अधिक है, जिसकी जानकारी भारत सरकार और भारत के आम लोगों को रही है। यह खबर तो पहले से बहुचर्चित है कि भारत सरकार ने खुद अपने प्रयास से सैकड़ों देशवासियों को युद्धग्रस्त इजराइल में मजदूरी करने के लिए भेजा।

तो मन में पहली नजर में भाव यह उभरता है कि त्रासदी कहीं हो, उससे भारतीयों का कोई ना कोई संबंध निकल आता है। आखिर देश में अवसरों की इतनी कमी और उससे उत्पन्न निराशा इतनी व्यापक क्यों है कि देशवासी कहीं भी जाकर अपनी जान खतरे में डालने के लिए तैयार हो जाते हैं? हम कुछ आंकड़ों पर गौर करें, तो इस बारे में कुछ संकेत पा सकते हैं। मसलन, जहां युवा बेरोजगारी असामान्य रूप से ऊंची हो और खाद्य मुद्रास्फीति लगातार आठ प्रतिशत से ऊपर चल रही हो, वहां आम जन की कैसी जिंदगी की कल्पना की जा सकती है? अप्रैल के जारी ताजा आंकड़ों में भी खाद्य मुद्रास्फीति 8.7 प्रतिशत दर्ज हुई है।

कुल आलाम यह है कि सर्वे एजेंसी गैलप के एक विश्वव्यापी आकलन में सामने आया कि भारत में सिर्फ 14 फीसदी कर्मचारियों ने अपनी स्थिति को खुशहाल श्रेणी में रखा। बाकी 86 प्रतिशत कर्मचारियों ने अपनी हालत को संघर्षरत या पीड़ादायक बताया। जबकि अपने को खुशहाल बताने वाले कर्मचारियों का वैश्विक औसत 34 प्रतिशत था। शासक तबकों और उनके संचार माध्यमों की तरफ से इस जमीनी सूरत पर परदा डालने के सुनियोजित अभियान लगातार चलाए जाते हैं। मगर उनसे संकट अब छिपाये नहीं छिप रहा है। अब हाल यह है कि अक्सर चुनावों के बाद दिखने वाला आशावाद भी इस बार गायब ही रहा है।

By NI Editorial

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