न्यायपालिका के इंसाफ करने के नए अंदाज से एक तरफ सरकार की मंशा पूरी हो जाती है, और दूसरी तरफ अन्य पक्ष के लोग भी खुश हो जाते हैं कि उनकी दलील पर कोर्ट की मुहर लग गई। लेकिन क्या यह सचमुच न्याय है?
हाल के वर्षों में देश में इंसाफ का एक नया अंदाज देखने को मिला है। अंदाज यह है कि अगर मामला भारत सरकार या सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हो, तो कोर्ट का फैसला कुछ ऐसा होता है, जिससे सत्ता पक्ष को ज्यादा परेशानी ना हो। मसलन, अगर किसी मामले में कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचता है कि उसमें संवैधानिक प्रावधानों/ भावना या न्यायिक निर्देशों का उल्लंघन किया गया है, तो अदालत यह बात दो टूक कहेगी, लेकिन साथ ही उस उल्लंघन के परिणाम को रद्द नहीं करेगी। इस तरह सरकार की मंशा पूरी हो जाती है, और दूसरे पक्ष के लोग भी खुश हो जाते हैं कि उनकी दलील पर कोर्ट की मुहर लग गई। लेकिन क्या यह सचमुच न्याय है? इस रुझान की ताजा मिसाल प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक के कार्यकाल को बार-बार बढ़ाए जाने के मामले में देखने को मिली। सुप्रीम कोर्ट इसे अवैध ठहराया। लेकिन साथ ही इस रुझान के लाभार्थी को तुरंत पद मुक्त करने का निर्देश नहीं दिया। जबकि अपेक्षित यह था कि अवैधानिक कार्य करने के लिए संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाती और साथ ही सेवा-विस्तार के दौर में ईडी द्वारा लिए गए फैसलों को अगर रद्द नहीं, तो कम से कम पुनर्विचार की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश कोर्ट देता।
मगर इस मामले में वही ट्रेंड दोहराया गया, जो इसके पहले महाराष्ट्र में सरकार बदलने के मामले में दिखने को मिला था, या अयोध्या निर्णय में जिसके संकेत मिले थे। गौरतलब है कि पिछले करीब पांच सालों से ईडी का नेतृत्व कर रहे संजय कुमार मिश्रा की देखरेख में इस अवधि में एजेंसी ने कई बड़े मामलों में जांच शुरू की है। भारतीय राजस्व सेवा के 1984 बैच के अधिकारी संजय कुमार मिश्रा को सबसे पहले 19 नवंबर, 2018 को दो साल के तय कार्यकाल के लिए ईडी का निदेशक नियुक्त किया गया था। उसके बाद उन्हें तीन बार सेवा विस्तार दिया गया। उनके कार्यकाल में ईडी पर राजनीतिक नजरिए से प्रेरित कार्रवाइयां करने के कई इल्जाम लगे हैँ। इसलिए यह मामला संवेदनशील था। कहा जा सकता है कि इसमें कोर्ट ने अर्ध-न्याय किया है।