गड़बड़ी का दंड दोषी लोगों को भुगतना ही चाहिए। मगर जिस फुर्ती से राज्यपाल ने इस मामले में पहल की, उससे संदेह का माहौल बना है। गैर-भाजपा राज्य सरकारों के प्रति राज्यपालों की ऐसी भूमिका लगातार विवाद के केंद्र में है।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार में शामिल हैं या नहीं, बेशक इसकी जांच होनी चाहिए। दरअसल, यह खुद सिद्धरमैया से अपेक्षित है कि वे एक निष्पक्ष जांच समिति बनाएं, जिसमें उन कार्यकर्ताओं में से किसी एक को भी रखा जाए, जिनकी शिकायत पर राज्यपाल ने उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत दी है। ऊपरी तौर पर आरोप अस्पष्ट हैं। मामला मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण (मूडा) की तरफ से सिद्धारमैया की पत्नी पार्वती को आवंटित की गई ज़मीन से जुड़ा है। पार्वती को मैसूर के विजयनगर में 14 प्लॉट दिए गए। ये आवंटन केसारे गांव में उनकी ली गई 3.16 एकड़ ज़मीन के बदले में हुआ। बताया जाता है कि मूडा ने पार्वती की जमीन पर अनधिकृत कब्ज़ा कर लिया था। आरोप यह लगा है कि आवंटित ज़मीन की क़ीमत उस ज़मीन से ज़्यादा है, जो मूडा ने उनसे ली थी। कहा गया है कि यह आवंटन सिद्धरमैया के दबाव में हुआ। जबकि मुख्यमंत्री का तर्क है कि ये आवंटन 50:50 योजना के तहत हुआ।
इस योजना के लाभार्थियों में कई अन्य लोग भी हैं, जिनकी ज़मीन पर मूडा ने अनधिकृत कब्ज़ा किया था। मूडा ने हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद 50:50 योजना को लागू किया था। जांच का विषय यही है कि क्या पार्वती तो अन्य लाभार्थियों से अधिक फायदा मिला? और क्या इस निर्णय प्रक्रिया को किसी भी रूप में सिद्धरमैया ने प्रभावित किया? अगर ये दोनों बातें नहीं हैं, तो फिर कोई मामला नहीं बनता। लेकिन कोई गड़बड़ी हुई, तो फिर उसका दंड दोषी लोगों को भुगतना ही चाहिए। बहरहाल, जिस फुर्ती से राज्यपाल ने इस मामले में पहल की, उससे संदेह का माहौल बना है। गैर-भाजपा राज्य सरकारों के प्रति राज्यपालों की ऐसी भूमिका लगातार विवाद के केंद्र में है। ऐसी सरकारों को अस्थिर करने में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की मंशा भी अब जग-जाहिर है। संभवतः इसीलिए राज्यपाल के निर्णय के बाद कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी सिद्धरमैया के साथ लामबंद नजर आई है। वैसे भी वर्तमान संदर्भ में यह कोई असामान्य बात नहीं है कि सिद्धरमैया ने नैतिक आधार पर पद छोड़ने के बजाय कानूनी लड़ाई लड़ने का संकल्प जताया है।