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मां लक्ष्मी कृपा करें!

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पॉश बाजारो में चहल-पहल रही, जबकि मध्य-वर्गीय बाजारों में कारोबार मंदा रहा। प्रीमियम उत्पाद खूब बिके, जबकि आम उपभोक्ता वस्तुओं के विक्रेता ग्राहक जोहते रहे। धनतेरस की खबर पर एक वित्तीय अखबार ने हेडिंग दीः दिवाली ने व्यय विभाजन को गहरा बनाया

आज प्रकाश और लक्ष्मी पूजन का दिन है। हिंदू परंपरा में लक्ष्मी धन और समृद्धि की देवी हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी और सरस्वती साथ-साथ नहीं चलतीं। जबकि हाल के अनुभव से ऐसा लगता है कि लक्ष्मी की कृपा पूरे समाज की उत्तरोत्तर समृद्धि का स्रोत बने, इसलिए विद्या की देवी की कृपा भी जरूरी है। बिना विवेक धन की उपासना परिवार और समाज में खाई का कारण बन जाती है। दिवाली से ठीक पहले बाजारों में जो दिखा, वह भारतीय समाज के ऐसी ही खाई में फंसने का संकेत है। धनतेरस के दिन देखने को मिला की शहरों में पॉश इलाकों के बाजारों में खूब चहल-पहल रही, जबकि पास-पड़ोस तथा उपनगरीय इलाकों के मध्य-वर्गीय बाजारों में माहौल मद्धम रहा।

त्योहारों के इस पूरे सीजन में प्रीमियम उत्पादों की बिक्री खूब हुई है, जबकि आम उपभोक्ता वस्तुओं के विक्रेता ग्राहकों की बाट जोहते रहे हैं। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक पांच हजार रुपये से ऊपर के परिधान खूब बिके, जबकि सस्ते वस्त्रों का बाजार मंदा रहा। एक वित्तीय अखबार ने अपनी रिपोर्ट की हेडिंग दीः ‘दिवाली ने व्यय विभाजन को गहरा बनाया’। आज कल सोने-चांदी का बाजार गरम है, तो साधारण मध्यवर्गीय खरीदार ऐसे स्टोर्स से दूर ही रहे, जबकि महंगे सिक्कों और स्वर्ण छड़ों की खूब बिक्री हुई। ऑल इंडिया जेम एंड जुवेलरी डॉमेस्टिक काउंसिल के अध्यक्ष ने कहा- ‘हम इस वर्ष 10 प्रतिशत कम बिक्री का अनुमान लगा रहे हैं, हालांकि तब भी हम 20 प्रतिशत अधिक कीमत का सोना बेच लेंगे।’

मारुति कंपनी की ताजा बिक्री रिपोर्ट से भी यही ट्रेंड जाहिर हुआ है। खुद केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि खासकर शहरों में उपभोक्ता भावनाएं और मांग लड़खड़ा रही हैं। फिर भी देश के कर्ता-धर्ता सात प्रतिशत ग्रोथ रेट और विकसित भारत का नैरेटिव फैलाने में व्यस्त हैं। समाज के अति छोटे हिस्से की समृद्धि पर वे आत्म-मुग्ध हैं। तो आईए, आज के दिन मां लक्ष्मी से प्रार्थना करें कि वे हमारे शासकों और अभिजात्य तबकों को सद्बुद्धि दें। उन्हें बताएं कि समृद्धि सब में नहीं बंटी, तो वह टिकाऊ नहीं हो सकती।

By NI Editorial

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