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बदले वक्त का तकाजा

शिक्षा के निजीकरण, इसके गिरते स्तर, तथा स्वस्थ आबादी के अभाव ने भारत में ऐसी श्रमशक्ति तैयार की है, जो आज की जरूरतों को पूरा नहीं करती। फिर अर्थव्यवस्था के उत्तरोत्तर निजीकरण से आरक्षण की जड़ पर प्रहार हुआ है।

एससी/एसटी आरक्षण के अंदर जातियों के वर्गीकरण से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर “सामाजिक न्याय” की पैरोकार पार्टियों के बीच मतभेद देखने को मिला है। आंध्र प्रदेश की दलित जाति मडिगा के संगठन, डीएमके, जनता दल (यू) आदि ने इसका स्वागत किया है। जबकि राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, बहुजन विकास अघाड़ी, लोक जनशक्ति पार्टी आदि ने इसे संवैधानिक आरक्षण की भावना के खिलाफ बताया है। कुछ ऐसी भी पार्टियां हैं, जिन्होंने इस पर चुप्पी साध लेने में बेहतरी समझी है। फैसला यह है कि राज्यों को अनुसूचित जाति/ जनजाति की सूची में जातियों का वर्गीकरण करने का अधिकार होगा, जिससे वे अधिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण में प्राथमिकता दे सकेंगे। साथ ही नई जातियों को इन सूचियों में शामिल करने का रास्ता भी साफ हो गया है। सात सदस्यीय बेंच में से कुछ जजों ने क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने की बात भी कही- यानी जो लोग आरक्षण का लाभ प्राप्त कर आगे बढ़ चुके हैं, उन्हें इस सुविधा से बाहर कर अब भी पिछड़ेपन के शिकार लोगों को इसका फायदा दिया जाना चाहिए।

आलोचक दलों को अंदेशा है कि इन सिद्धांतों को लागू करने से लाभ की हकदार बची जातियों में उतने पढ़े-लिखे लोग नहीं मिलेंगे, जिनसे आरक्षित सीटों को भरा जा सके। वैसे में खाली रह गई सीटें जेनरल कैटगॉरी के लोगों को दे दी जाएंगी। अपेक्षित होगा कि सरकारें आश्वस्त करें कि ऐसा नहीं होगा। मगर लाभ क्रमशः अधिक पिछड़े लोगों को मिले, इस पर आपत्ति का कोई तार्किक आधार नहीं है। वैसे भी बदले वक्त में बहस को आरक्षण के दायरे से आगे ले जाने की जरूरत है। शिक्षा के निजीकरण, इसके गिरते स्तर, तथा स्वस्थ आबादी के अभाव ने भारत में ऐसी श्रमशक्ति तैयार की है, जो आज की जरूरतों को पूरा नहीं करती। फिर अर्थव्यवस्था के उत्तरोत्तर निजीकरण से आरक्षण की जड़ पर प्रहार हुआ है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चुप्पी छायी रहती है। राजनीतिक दलों की सारी चिंता जातीय गोलबंदी तक सीमित रहती है। जबकि आवश्यकता वक्त के तकाजों के मुताबिक न्याय की नई और अधिक व्यापक सोच अपनाने की है।

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