कोरोना महामारी के बाद से गणना की जाए, तो तमाम जरूरी चीजें दो से तीन गुना तक महंगी हो चुकी हैं। कितने लोगों की आमदनी इसी अनुपात में बढ़ी है? मुश्किल से ऐसे 20 फीसदी लोग होंगे। मतलब, 80 प्रतिशत आबादी का जीवन स्तर गिरा है।
पहले आसान भाषा में गौर करें। सितंबर में मुद्रास्फीति दर 5.5 प्रतिशत थी। यानी जो वस्तु अगस्त में 100 रुपये की थी, वह सितंबर खत्म होते-होते 105.50 रुपये की हो गई। अक्टूबर में कीमतों में औसत वृद्धि 6.2 फीसदी की हुई। यानी वही वस्तु लगभग 112 रुपये की हो गई है। इस खाद्य महंगाई की दर लगभग पौने दो गुना रही है। कोरोना महामारी के बाद से गणना की जाए, तो ये तमाम चीजें दो से तीन गुना तक महंगी हो चुकी हैं। भारत में कितने लोग ऐसे हैं, जिनकी आमदनी इसी अनुपात में बढ़ी हो? मुश्किल से ऐसे 20 फीसदी लोग होंगे। मतलब, 80 प्रतिशत आबादी का जीवन स्तर इस दौर में गिरा है। जो तबके पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज और प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण योजनाओं से लाभान्वित हुए हैं, उनके मामले में यह मार अवश्य कुछ कम होगी।
इसलिए उन रिपोर्टों को आसानी से समझा जा सकता है, जिनके मुताबिक ग्रामीण इलाकों में उपभोग अपेक्षाकृत बढ़ा है, जबकि शहरी इलाकों में गिरावट आई है। इसीलिए गांवों में उपभोग में अपेक्षाकृत वृद्धि भी जीवन स्तर संवरने का सूचक नहीं है। सार यह कि सीमित तबकों को छोड़ कर बाकी विशाल आबादी की जिंदगी लगातार ऊंची चल रही महंगाई दर से मुहाल है। क्या यह हैरतअंगेज नहीं कि यह देश का सर्व-प्रमुख राजनीतिक मुद्दा नहीं है? आज कोई सरकार से नहीं पूछता कि उसके मूल्य स्थिरीकरण कोष से क्या हासिल हुआ? चालू वित्त वर्ष के बजट में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के तहत चलने वाले इस कोष के लिए 10 हजार करोड़ रुपये आवंटित हुए थे।
गठन के समय इसका मकसद आवश्यक वस्तुओं के मूल्य पर निगरानी रखना और कीमतों में औचक बढ़ोतरी की स्थिति में दखल देना बताया गया था। अमेरिका से यूरोप तक महंगाई के मुद्दे पर पिछले दो वर्षों में लगातार सरकारें बदली हैं। लेकिन भारतीय राजनीति पर प्रभु वर्ग का शिकंजा इतना कस चुका है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष- दोनों के लिए यह मुद्दा ही नहीं है। जज्बाती सवालों में उलझे इन दोनों पक्षों ने लोगों को महंगाई की चक्की पिसने के लिए छोड़ रखा है।