मानहानि मामले में राहुल गांधी को गुजरात की अदालत से सुनाई गई सज़ा का न्यायोचित आधार नहीं था, यह बात पहले दिन से और निर्णय प्रक्रिया की पृष्ठभूमि से भी स्पष्ट थी। हाई कोर्ट ने जब उस फैसले पर मुहर लगाई, तो स्वाभाविक रूप से उस पर कानून और उसकी भावना को समझने वाले तमाम लोगों को हैरत हुई। निचली अदालत के फैसले के बाद संसद की सदस्यता रद्द करने का लोकसभा स्पीकर ने जिस तेजी से निर्णय लिया और फिर जिस फुर्ती बतौर सांसद मिले मकान से राहुल गांधी को निकाला गया, उन सबने उस प्रकरण को और संदिग्ध बना दिया। बहरहाल, यह संतोष की बात है कि इस संदर्भ में जो सवाल आम लोगों के मन में थे, उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया है। हालांकि अभी इस मामले में अंतिम फैसला नहीं आया है, लेकिन निचली अदालत के निर्णय पर रोक लगाने का सर्वोच्च न्यायालय का आदेश वैधानिक और राजनीतिक दोनों रूपों से महत्त्वपूर्ण है।
चूंकि फिलहाल, नैतिक पलड़ा राहुल गांधी के पक्ष में झुका हुआ है, इसलिए उनकी सांसद सदस्यता की बहाली में कितना वक्त लगता है, यह कांग्रेस नेता के लिए ज्यादा मायने नहीं रखता। वैसे भी राहुल गांधी जब लोकसभा में थे, तब वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि आज विपक्ष पारंपरिक रूप से अपनी भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं रह गया है। संसद में सार्थक चर्चा की गुंजाइशें लगातार घटती गई हैँ। कभी संसद लोकतांत्रिक राजनीति का प्रमुख मंच होता था। लेकिन यह तब की बात है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष में एक दूसरे के प्रति न्यूनतम सम्मान का भाव था और सरकार विपक्ष को जवाब देना अपना लोकतांत्रिक दायित्व मानती थी। आज ये परिस्थितियां बदल चुकी हैं। उधर मीडिया और अनेक संवैधानिक संस्थाओं के अपने तय कर्त्तव्य के विपरीत व्यवहार करने से भी विपक्ष के लिए प्रतिकूल स्थितियां बनी हैं। अपनी इसी समझ के आधार पर राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर निकले थे। सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बाद उन्होंने जो कहा वह इस संकेत है कि उन्हें आज भी वही उपयुक्त रास्ता नजर आता है। यह सही समझ है।