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हसीना की फीकी जीत

चुनौती यह होती है कि समाज के लिए हानिकारक विचारों और राजनीतिक शक्तियों के खिलाफ जनमत बनाया जाए, जिससे उन्हें चुनाव में हराना संभव हो। येन-केन-प्रकारेण उन शक्तियों को राजनीतिक मुकाबले से बाहर करने की सोच सिरे से अलोकतांत्रिक है।

हेडलाइन है कि बांग्लादेश में सत्ताधारी अवामी लीग फिर चुनाव जीत गई। पार्टी की नेता शेख हसीना वाजेद प्रधानमंत्री बनी रहेंगी। यह उनका लगातार चौथा कार्यकाल होगा। लेकिन सुर्खी के नीचे की सूचनाएं उनके लिए उतनी अनुकूल नहीं है। पहली बात तो यह कि वोटिंग प्रतिशत बेहद कम रहा। इस बार 42 फीसदी वोट पड़ने की खबर है, जबकि पांच साल पहले यानी 2018 के चुनाव में तकरीबन 80 प्रतिशत मतदान हुआ था। तब विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने शुरुआत से चुनाव का बहिष्कार नहीं किया था, लेकिन बाद में चुनाव आयोजन में बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगाते हुए उसने अपने उम्मीदवार मैदान से हटा लिए थे। इस बार बीएनपी और उसकी 15 सहयोगी पार्टियों ने आरंभ से बहिष्कार की घोषणा कर दी थी। इन दलों ने मतदान का बहिष्कार का आह्वान किया था। कहा जा सकता है कि इसका व्यापक असर हुआ। अवामी लीग के सामने कोई मजबूत पार्टी मैदान में नहीं थी, इसके बावजूद हसीना सरकार के कई प्रमुख मंत्री चुनाव हार गए हैं।

इसके अलावा 300 सदस्यों वाली संसद में 50 से अधिक निर्दलीय उम्मीदवार विजयी हुए। कई छोटी पार्टियों ने चुनाव में हिस्सा लिया था और वे लगभग 15 सीटें जीतने में कामयाब रही हैं। इसे सत्ताधारी पार्टी से मतदाताओं की नाराजगी के इजहार के रूप में देखा जाएगा। चुनाव नतीजों से साफ है कि विपक्ष के बायकॉट के बावजूद चुनाव में अवामी लीग को वैसी एकतरफा जीत नहीं मिली, जिसका अनुमान लगाया गया था। क्या इसे शेख हसीना की नैतिक साख के क्षरण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? उससे भी बड़ा सवाल देश की राजनीतिक व्यवस्था की साख का है। यह तर्क खोखला है कि बीएनपी का गठबंधन कट्टरपंथी और सांप्रदायिक विचार रखता है, इसलिए उसे सत्ता से बाहर रखकर शेख हसीना ने प्रगतिशील विचारों की सेवा की है। चुनौती यह होती है कि समाज के लिए हानिकारक विचारों और राजनीतिक शक्तियों के खिलाफ व्यापक जनमत का निर्माण किया जाए, जिसके आधार पर उन्हें चुनाव में हराना संभव हो। इसलिए येन-केन-प्रकारेण उन शक्तियों को राजनीतिक मुकाबले से बाहर करने की सोच सिरे से अलोकतांत्रिक है।

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