Pew Study Research, प्यू के सर्वे में 24 देशों में अधिकांश लोगों ने कहा कि लोकतंत्र का आकर्षण कम हो रहा है। उन्होंने इसकी प्रमुख वजह आर्थिक संकट को माना। आम राय उभरी कि कोई भी राजनीतिक गुट आम जन की सच्ची नुमाइंदगी नहीं करता।
इस साल को चुनावों का वर्ष बताया गया था। अब तक उनमें से ज्यादातर प्रमुख चुनाव हो चुके हैं। उनमें उभरे नतीजों में एक ट्रेंड की पहचान आसानी से की जा सकती है। रुझान रहा कि (कुछ अपवादों को छोड़ कर) सत्ताधारी दलों को पराजय का मुंह देखना पड़ा- अथवा सत्ताधारी दलों को गहरा झटका लगा। ऐसा क्यों हुआ, स्वाभाविक है कि राजनीति-शास्त्री अब इसे समझने में लगे हुए हैं।
आम राय यह उभरी है कि पिछले तीन साल से जारी महंगाई के आलम ने एंटी-इन्कंबेंसी की भावना को बढ़ाया है। मगर एक राय यह भी है कि दशकों से गहराती गई समस्याओं से ऊब चुके लोग अब अपने वोट के जरिए अपने असंतोष को जताने लगे हैं। गुजरे दशकों में आम जन की पहुंच से बाहर होती गईं स्वास्थ्य सुविधाएं, महंगी हुई शिक्षा, और कार्यक्षेत्र में अनिश्चितता के कारण लोगों में मुख्यधारा राजनीतिक दलों के प्रति विरोध भाव बढ़ा है। वे सत्तासीन दलों पर इसका गुस्सा निकाल रहे हैं।
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अमेरिका की मशहूर संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक लोगों में राजनेताओं को लेकर आम निराशा है। यह बात विचारधारा से परे जाकर हर जगह दिखाई दे रही है। Pew Study Research दौरान 24 देशों में बहुसंख्या में लोगों ने राय जताई कि लोकतंत्र का आकर्षण कम हो रहा है। उन्होंने इसकी प्रमुख वजह बढ़ते आर्थिक संकट को माना। सर्वेक्षण के दौरान यह आम धारणा जताई गई कि कोई भी राजनीतिक गुट आम जन की सच्ची नुमाइंदगी नहीं करता। यही सोच इस वर्ष चुनावों में व्यक्त हुई है। वैसे बात सिर्फ इसी वर्ष की नहीं है।
अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों के मुताबिक कोरोना महामारी के बाद से पश्चिमी देशों में हुए 54 चुनावों में से 40 में सत्तारूढ़ पार्टियों को सत्ता गंवानी पड़ी है। साफ है, सत्तारूढ़ दलों के लिए चुनाव फिलहाल नुकसान का मौका बन गए हैँ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, यूरोपीय संसद से लेकर भारत तक के चुनावों में लोगों की सत्ता विरोधी प्रतिक्रिया उभरी। आशंका यह भी है कि लोगों के भीतर ऐसे भाव का गहराना लंबे समय में खुद चुनावी लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है।