स्वस्थ आर्थिक वृद्धि वह होती है, जिसमें वृद्धि दर के अनुरूप रोजगार के अवसर भी पैदा हों। वैसी आर्थिक वृद्धि समाज की समृद्धि में योगदान करती है। जबकि अभी बहुसंख्यक श्रमिक नियमित वेतन वाले रोजगार से बाहर होती जा रहे हैं।
वैसे तो नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या में आम तौर पर गिरावट आई है, लेकिन यह गिरावट अल्पसंख्यक समुदायों के मामले में कहीं ज्यादा हुई है। वार्षिक पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के आंकड़ों के एक ताजा विश्लेषण से सामने आया यह तथ्य भारत में आम खुशहाली के लिहाज से चिंताजनक है। जिस समय वर्तमान राजनीतिक रुझानों के कारण अल्पसंख्यक समुदाय फिक्रमंद हैं, अगर रोजी-रोटी के क्षेत्र में भी उनके भेदभाव का शिकार होने की धारणा बनने लगे, तो सामाजिक सद्भाव पर उसका खराब असर पड़ सकता है। ताजा विश्लेषण में 2018-19 के आंकड़ों की तुलना 2022-23 में उभरी सूरत से की गई है। इस दौरान नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों में हिंदुओं की भी गिरी। 2018-19 में हिंदू श्रम शक्ति का 23.7 प्रतिशत हिस्सा नियमित वेतनभोगी था। जबकि 2022-23 में यह संख्या 21.4 फीसदी रह गई। लेकिन इस दौरान मुसलमानों में यह संख्या 22.1 प्रतिशत से गिर कर 15.3 प्रतिशत पर आ गई।
ईसाइयों में ये तादाद 31.2 फीसदी से गिरकर 28 प्रतिशत रह गई। जबकि सिखों के बीच यह संख्या 28.5 प्रतिशत से 26 फीसदी तक आ गिरी। ये आंकड़े दो तथ्यों को स्पष्ट करते हैँ। पहला तो यह कि भारत में नियमित वेतनभोगी रोजगार के अवसर सिकुड़ते चले जा रहे हैं। अगर सकल श्रम शक्ति की स्थिति पर गौर करें, तो 2018-19 में भारत में 23.8 प्रतिशत श्रमिक नियमित वेतनभोगी थे, जबकि 2022-23 में यह संख्या 20.9 प्रतिशत रह गई। उच्च आर्थिक वृद्धि के दौर में यह रुझान घोर चिंता का विषय है। इसका अर्थ यह है कि देश में हो रही आर्थिक वृद्धि के लाभों- यानी निर्मित धन का बंटवारा लगातार असमान होता जा रहा है। स्वस्थ आर्थिक वृद्धि वह होती है, जिसमें वृद्धि दर के अनुरूप रोजगार के अवसर भी पैदा हों। उस स्थिति में आर्थिक वृद्धि व्यापक रूप से समाज की समृद्धि में योगदान करती है। जबकि वर्तमान स्थिति में अधिकांश लाभ कुछ हाथों में सिमट रहे हैं, जबकि बहुसंख्यक जनता कथित स्वरोजगार के लिए मजबूर होती जा रही है। बहरहाल, इस आम दरिद्रीकरण में मजहबी आधार पर भी अगर विषमता बढ़ रही है, तो और भी ज्यादा चिंता का पहलू है।