यह समझना कठिन है कि संसद में बहस की छोटी-सी मांग पर सरकार ने क्यों जिद्दी रुख अपना लिया है? और क्यों दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी इतने सख्त हो गए कि 14 विपक्षी सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया?
संसद में हुई सुरक्षा चूक पर विपक्ष ने दोनों सदनों में चर्चा और फिर गृह मंत्री के बयान की मांग की है, तो इसे एक सामान्य संसदीय प्रक्रिया कहा जाएगा। आखिर संसद की सुरक्षा का भंग होना कोई छोटा मामला नहीं है। दरअसल, यह समझना कठिन है कि इतनी छोटी-सी मांग पर भी नरेंद्र मोदी सरकार ने क्यों जिद्दी रुख अपना लिया है? और क्यों दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी इतने सख्त हो गए कि 14 विपक्षी सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया? बेशक, ऐसे कुछ पहलू हैं, जिनकी चर्चा से सत्ता पक्ष असहज हो सकता है। मसलन, वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल में संसद परिसर की सुरक्षा संबंधी संयुक्त संसदीय समिति का गठन ना होने के तथ्य से सरकार घिरती है। आखिर ऐसी लापरवाही क्यों हुई? इसी तरह चूंकि संसद में गैस कनिस्तर के साथ घुसने वाले नौजवानों का पास एक भाजपा सांसद ने बनवाया था, तो यह भी सत्ता पक्ष को असहज करने वाला तथ्य है। जब जांच टीम ने गिरफ्तार नौजवानों पर यूएपीए लगाने का निर्णय लिया, तो उससे यह मुद्दा और गंभीर हो गया।
स्पष्टतः पुलिस मामले को आतंकवादी गतिविधि मान रही है। ऐसे में भाजपा सांसद पर ऐसी गतिविधि में सहायक बनने का इल्जाम स्वाभाविक रूप से लग जाता है। तो यह मांग वाजिब है कि उनसे उसी रूप में पूछताछ होनी चाहिए, जैसे ऐसी गतिविधियों में शामिल होने वाले किसी व्यक्ति से होती है। संभव है कि संसदीय बहस के दौरान देश में पहले से मौजूद इस शिकायत को दोहराया जाए कि भाजपा शासन काल में जुर्म और मुजरिम की परिभाषाएं बदल दी गई हैं- यह इस आधार पर तय होती है कि अपराध किसने और किसके खिलाफ किया है। इसके बावजूद सत्ता पक्ष के लिए उचित होगा कि वह इस मामले में अपनी जवाबदेही से बचने की कोशिश ना करे। बल्कि बहस होने पर दोनों सदनों में उसे ऐसे आरोपों और शिकायतों का जवाब देने का मौका मिलेगा। अगर तथ्य और तर्क उसके पक्ष मे दिखे, तो विवेकशील जनता के मन में मौजूद संदेहों का निवारण होगा। वरना, लोग तो अपनी राय तो बना ही रहे हैँ।