देश गंभीर आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है। खुशहाली की बनवाटी कहानियों के विपरीत जमीनी सूरत भयावह है। भारत अपनी युवा आबादी से अपेक्षित लाभ को गंवाता दिख रहा है। संसद को इसी पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
संसद का बजट सत्र आज से शुरू हो रहा है, तो सामान्य यही अपेक्षा होगी कि इसमें चर्चा आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित रहे। आज पेश होने वाले आर्थिक सर्वेक्षण और मंगलवार को पेश होने वाले बजट से ऐसी चर्चा के लिए पर्याप्त तथ्य मिलेंगे। देश गंभीर आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है। खुशहाली की बनाई गई बनवाटी कहानियों के विपरीत जमीनी सूरत भयावह है। बेरोजगारी और अवसरहीनता की चोट के कारण भारत अपनी युवा आबादी से अपेक्षित लाभ को गंवाता दिख रहा है। ऐसे में किसी देश का जिम्मेदार नेतृत्व वक्त बर्बाद नहीं कर सकता। मगर, दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में जिन लोगों के कंधों पर जनता ने देश की बागडोर डाली है, वो ना सिर्फ विकट होती आर्थिक परिस्थितियों को नजरअंदाज कर रहे हैं, बल्कि ऐसे टोटके भी लगातार चल रहे हैं, जिनसे लोगों का ध्यान भी उनकी अपनी मुसीबतों से भटकाया जा सके।
मसलन, कांवड़ यात्रा के समय उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दुकानदारों को अपना नेमप्लेट लगाने के लिए जारी किए गए आदेश को हम ले सकते हैँ। स्पष्टतः इसके जरिए उसी दवा की खूराब और बढ़ाई गई है, जो हाल के आम चुनाव में बेअसर साबित हुई। अब आशंका है कि इसे या इस जैसे अन्य मुद्दों को लेकर संसद हंगामे का शिकार हो जाएगी और रोजी-रोटी के असल सवाल चर्चा के केंद्र में आने से रह जाएंगे। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस सत्र में, अधिक नहीं, तो सिर्फ पिछले डेढ़ महीनों में बढ़ी महंगाई और बेरोजगारी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के उठे सवालों और ढहते इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मुद्दों पर गंभीरता से विचार-विमर्श एवं आत्म-मंथन हो। अब हालात ऐसे हैं कि विकसित भारत या शाइनिंग इंडिया के सपनों में क्रमबलिंग (लड़खड़ाते) इंडिया की हकीकत छेद करने लगी है। इस कारण लोगों में भरते असंतोष का इजहार 18वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों में भी हुआ। अफसोसनाक है कि सत्ता पक्ष ने उभरती हकीकत और हालिया जनादेश के पैगाम की लगभग पूरी उपेक्षा कर रखी है। ऐसे में यह पूरा दायित्व विपक्ष पर है कि भटकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद विमर्श को सही बिंदु पर वह ले आए।