आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के क्षेत्र में इस वक्त सर्व प्रमुख चिंता बंटते प्रतिमान हैं। एआई क्षेत्र में अमेरिका और चीन निर्विवाद रूप से अग्रणी महाशक्ति हैं, जो एक दूसरे से बिल्कुल अलग दायरे में और अलग मकसदों से एआई को विकसित कर रहे हैं। आशंका है कि इन दोनों महाशक्तियों में प्रतिमानों और इस आधुनिक तकनीक के संचालन संबंधी कायदों पर न्यूनतम आम-सहमति नहीं रही, तो विभिन्न देश दो में से किसी एक प्रतिमान को चुनने के लिए मजबूर होते जाएंगे। ऐसा हुआ, तो वो दिन दूर नहीं, जब इंटरनेट का वैश्विक ताना-बाना भी विभाजित हो जाएगा। एआई पर राजनेताओं के सम्मेलनों का आयोजन का मकसद ऐसी ही सहमति हासिल करना है। वरना, एआई में निहित संभावनाओं (एवं आशंकाओं) से आज कौन अवगत नहीं है!
स्पष्टतः, सियोल और लंदन के बाद, पेरिस में फ्रांस और भारत की सह-अध्यक्षता में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन सिर्फ एआई के महिमामंडन के लिए नहीं किया गया। इसलिए गौरतलब है कि सम्मेलन के बाद जारी साझा बयान पर अमेरिका और ब्रिटेन ने दस्तखत नहीं किए। सम्मेलन में अमेरिकी उप-राष्ट्रपति जेडी वान्स ने दो-टूक कहा- ‘मैं यहां एआई की सुरक्षा पर बात करने नहीं आया हूं, जो दो साल पहले हुए सम्मेलन का भी विषय था। मैं यहां एआई में निहित अवसरों पर बात करने आया हूं। हमारी राय है कि अत्यधिक विनियमन अभी अपनी उड़ान शुरू ही करने रहे एआई जैसे रूप बदल सकने में सक्षम उद्योग की हत्या कर देंगे।
हम ग्रोथ-समर्थक एआई नीतियों को पूरा प्रोत्साहन देंगे। हम चाहते हैं कि यहां माहौल विनियमन खत्म करने की दिशा में बने।’ तो ट्रंप काल में अमेरिका की सोच इस रूप जाहिर हुई है। इस नजरिए से असहमत 58 देशों ने संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत किए, जिसमें ‘एआई को सुलभ बनाने तथा इसके प्रति विश्वास एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रयासों को प्रोत्साहित करने’ का आह्वान किया गया है। इन देशों में दोनों सह-अध्यक्षों के अलावा चीन भी शामिल है। स्पष्टतः ये देश विशेष प्रकार के विनियमन के पक्ष में हैं। तो पेरिस में खाई नहीं पटी। एआई की दुनिया जहां थी, सम्मलेन के बाद भी वहीं बनी रहेगी।