चुनावी खर्च घटाने का तर्क निराधार है। लेकिन उससे भी ज्यादा आपत्तिजनक बिल के जरिए सामने आई सरकार की सोच है, जिसमें विधानसभाओं (यानी राज्यों) को लोकसभा (यानी केंद्र) के मातहत माना गया है। भारतीय संविधान की परिकल्पना ऐसी नहीं है।
यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेजने पर राजी हो गई। मुमकिन है, इस नरम रुख के पीछे बिल पास कराने के लिए अनिवार्य संख्या बल का अभाव प्रमुख कारण हो। फिर भी इससे यह अवश्य होगा कि विपक्ष को विधेयक की खामियों और उसमें छिपी कृत्रिमता पर बारीक चर्चा करने और अपने तर्क रखने का मौका मिलेगा। अपेक्षित है कि सत्ताधारी गठबंधन संसदीय समिति की चर्चा को गंभीरता से ले और वहां अपना पक्ष थोपने की कोशिश ना करे। बिल का जो मसविदा सामने आया है, उससे जाहिर है कि इस प्रयास के पीछे जो प्रमुख दलील है, वह सिरे से निराधार है।
प्रमुख दलील है कि अभी अलग-अलग समय पर लोकसभा और विधानसभाओं के होने वाले चुनाव से खर्च बहुत होता है। मगर जो प्रावधान बताए गए हैं, उनसे साफ है कि चुनावों का खर्च कम नहीं होगा, बल्कि कुछ मामलों में बढ़ भी सकता है। पांच साल में संसदीय और तमाम विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की जिद का नतीजा होगा कि कभी लोकसभा तो कभी किसी विधानसभा का चुनाव पांच साल से कम अवधि के लिए होगा। तो सवाल है कि इससे खर्च कैसे घटेगा? बहरहाल, इससे भी ज्यादा आपत्तिजनक बिल के जरिए सामने आई सरकार की सोच है, जिसमें विधानसभाओं (यानी राज्यों) को लोकसभा (यानी केंद्र) के मातहत माना गया है। भारतीय संविधान की परिकल्पना ऐसी नहीं है। उसके मुताबिक अपने-अपने दायरे में संघ और राज्य दोनों स्वायत्त इकाइयां हैं।
दुनिया में जहां कहीं संघीय व्यवस्था है, वहां शासन का मार्गदर्शक सिद्धांत यही है। भाजपा इसे नहीं मानती और भारत में एकात्मक शासन लागू करना चाहती है, जिसमें राज्यों का दर्जा महज प्रशानिक इकाई का होगा, तो यह बात उसे खुल कर कहनी चाहिए, ताकि आम जन ऐसे प्रयासों के पीछे निहित मान्यता को साफ-साफ देख सकें। उसे यह भी कहना चाहिए कि वह संविधान का बुनियादी ढांचे से संबंधित न्यायपालिका की तरफ से स्थापित सिद्धांत को नहीं मानती। वरना, ऐसे कदम परदे के पीछे मंशा थोपने के कृत्रिम प्रयास ही मानते जाएंगे।