कम-से-कम 1990 के बाद से रिजर्व बैंक की कमान पेशेवर गवर्नरों के हाथ में रही। कई बार सरकारों ने तब भी उसके दायरे में घुसपैठ की, फिर भी मोटे तौर पर रिजर्व बैंक अपनी स्वायत्तता जताने में सफल रहता था। अब ये कहानी बदल गई है।
संजय मल्होत्रा लगातार दूसरे नौकरशाह हैं, जिन्हें भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया है। उनकी नियुक्ति के एलान के संकेत मिल गया था कि केंद्र सरकार भविष्य में आरबीआई से कैसी भूमिका की अपेक्षा रखती है। मल्होत्रा ने इस प्रतिष्ठित संस्था का कमान संभालने के तुरंत बाद जो कहा, उससे यह भी जाहिर हो गया है नए गवर्नर किस रूप में अपनी भूमिका देखते हैं। मल्होत्रा ने कहा- ‘अब जबकि हम अमृत काल में प्रवेश कर रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था जिस हाल में है, उसे और विसित होने की जरूरत है, ताकि 2047 तक विकसित भारत की दृष्टि साकार हो सके।’ लाजिमी है कि ऐसे वक्तव्य आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक रंग लिए दिखें।
सेंट्रल बैंकों (जिसे भारत में रिजर्व बैंक कहा जाता है) की क्या भूमिका होना चाहिए, इस पर सोच अक्सर टकराती रही है। मजबूत सरकारें अक्सर उसे अपने एक विभाग के रूप में काम करते देखना चाहती हैं, जबकि बाजार और अर्थव्यवस्था में हित रखने वाले अनेक दूसरे तबकों की अपेक्षा यह होती है कि ये संस्था पेशेवर नजरिए से काम करे। लोकतांत्रिक देशों में सरकारों की अपनी सियासी एवं चुनावी प्राथमिकताएं होती हैं, जो कई बार अर्थव्यवस्था की बड़ी जरूरतों के खिलाफ चली जाती हैं। उस समय सेंट्रल बैंकों से उम्मीद रहती है कि वे शासक दल की जरूरत के मुताबिक चलने के बजाय अर्थव्यवस्था के बुनियादी तकाजों को प्राथमिकता देंगे।
कम-से-कम 1990 के बाद से भारत में रिजर्व बैंक की कमान पेशेवर गवर्नरों के हाथ में रही और उन्होंने अपेक्षाकृत स्वायत्त ढंग से फैसले लिए। कई मामलों में सरकारों ने तब भी इस दायरे में घुसपैठ की, फिर भी मोटे तौर पर रिजर्व बैंक अपनी स्वायत्तता जताने में सफल रहता था। इस कारण तब टकराव भी उभरते थे। मगर नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने और शक्तिकांत दास के गवर्नर बनने के बाद से कहानी बदल गई है। इससे सरकार अपनी मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों को अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप लागू कर पाई है। अब नए गवर्नर ने जो संकेत दिए हैं, उससे शुरुआती धारणा तो यही बनी है कि यह चलन आगे भी जारी रहेगा।