संपत्ति बंटवारे या समान व्यवहार ना होने की शिकायत पर परिवारों में कलह आम बात है। जो परिवार राजनीति में हैं, उनका इससे हमेशा बचे रहना लगभग असंभव है। लेकिन हैरतअंगेज यह है कि फिर भी लोग कलह की ऐसी कहानियों से ऊबते नहीं हैं।
कहानी पुरानी है, लेकिन सार वही है। 1980-81 में इंदिरा गांधी के परिवार से मेनका गांधी की बगावत से लेकर शरद पवार के परिवार में कलह के बीच ऐसे इतने नाम हैं कि इन पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। इसमें करुणानिधि, एमजी रामचंद्रन, एनटी रामाराव, वाईएस राजशेखर रेड्डी, बाल ठाकरे, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि तक के नाम आते हैं। वे राजनीतिक परिवार हैं, जो कभी ना कभी अंदरूनी कलह का शिकार हुए। वैसे तो भारतीय राजनीति में परिवारों के दबदबे की कहानी पूरे देश में फैली हुई है। संपत्ति बंटवारे या समान व्यवहार ना होने की शिकायत पर आम परिवारों में कलह आम बात है। जो परिवार राजनीति में हैं, उनका इससे हमेशा बचे रहना लगभग असंभव है। लेकिन हैरतअंगेज यह है कि ऐसी कलह की कहानियां चारों तरफ फैले रहने के बावजूद लोग इनसे ऊबते नहीं हैं। कलह में जिसकी जीत हो जाती है, पार्टी कार्यकर्ता और मतदाता उसे उस परिवार का वारिस मान कर उसके पीछे चल देते हैं।
इसे लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा मान लिया गया है। यह सवाल नहीं पूछा जाता कि किसी नेता ने अपनी पार्टी को अपने परिजनों और रिश्तेदारों से इस तरह क्यों भरा, जिससे उसकी परिवारिक कलह राजनीति के दायरे तक फैल जाए? लेकिन अब इस और ऐसे सवालों पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। यह तो साफ है कि पवार परिवार में जो हो रहा है और अतीत में अन्य राजनीतिक परिवारों में जो इस तरह की घटनाएं हुई हैं, वे किसी रूप में ‘लोकतंत्र’ नहीं हैं। इसलिए कि ऐसे घटनाक्रमों में ना तो लोक के लिए कोई स्थान होता है और ना ही इनका लोक कल्याण से कोई संबंध है। ऐसे नाटक असल में लोकतंत्र का परिहास हैं। जब तक ऐसे परिहासों को लोकतंत्र समझा जाता रहेगा, तब तक व्यक्ति और परिवार केंद्रित ऐसी सियासत प्रचलन में रहेगी, जिस पर धनी और प्रभुत्वशाली तबकों का शिकंजा रहेगा। आखिर ऐसे तबके ही पारिवारिक कलह में विजयी नेता को चुनावी संसाधन उपलब्ध करवाते हैं और उनका मीडिया उनकी मसीहाई छवि बनाता है। पवार परिवार की कलह का भी यही निहितार्थ है।