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सेहत पर भी सियासत!

बेशक मतदाताओं को अपने नेताओं की सेहत और उनसे संबंधित तमाम सूचनाएं पाने का अधिकार है। लेकिन अपने देश में व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने का चलन है। इसका लाभ अधिकांश नेता उठाते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की सेहत को चुनावी मुद्दा बनाया है। सेहत संबंधी सूचना को छिपाने की साजिश का यह आरोप 77 वर्षीय मुख्यमंत्री की सेहत को लेकर मतदाताओं के मन में एक तरह का भ्रम पैदा करने का प्रयास समझा जाएगा। किसी के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित होना मानवीय संवेदना है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री की टिप्पणी के जवाब पटनायक ने कहा कि मोदी को सचमुच उनकी सेहत की चिंता होती, तो वे सीधे उन्हें फोन कर इस बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकते थे।

बल्कि कहा तो यह भी जा सकता है कि अगर पटनायक सचमुच बीमार हैं, तो प्रधानमंत्री अपने ओडिशा दौरे के समय उनसे मिलने जा सकते थे। इससे एक स्वस्थ राजनीति का संकेत मिलता। लेकिन पटनायक की सेहत को सियासी मुद्दा बनाने की पूरी तैयारी की गई। पहले प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में संकेतों में ओडिशा पर तमिलनाडु के बढ़े प्रभाव की चर्चा की। उन्होंने इशारों में यह कहने की कोशिश की, ओडिशा में शासन की असल बागडोर पटनायक के सहायक वीके पांडियन के हाथ में है। फिर असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वशर्मा ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें एक भाषण के दौरान पटनायक के हाथ कांपते नजर आए, जिसे पांडियन संभाल रहे थे। और उसके बाद मोदी ने सेहत पर सीधा हमला बोला।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मतदाताओं को अपने नेताओं की सेहत और उनसे संबंधित तमाम सूचनाएं पाने का अधिकार है। पश्चिमी देशों में ऐसी जानकारियां सार्वजनिक करने परंपरा भी है। लेकिन अपने देश में व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने का चलन है। इसका लाभ अधिकांश नेता उठाते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हैं। मोदी इस परंपरा को बदलना चाहते हैं, तो शुरुआत खुद से करते हुए इस मुद्दे पर उन्हें गंभीर बहस छेड़नी चाहिए। बगैर उसके सिर्फ पटनायक की सेहत को मुद्दा बनाना एक अप्रिय संदेश देता है। फिलहाल अपेक्षित यही है कि चुनावों में सत्ताधारी दल के कामकाज और विभिन्न पार्टियों के नीति-कार्यक्रमों को मुद्दा बनाया जाए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में इस अपेक्षा का लगातार उल्लंघन हो रहा है।

By NI Editorial

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