स्पष्टतः एग्जिट पोल एजेंसियों, टीवी चैनलों और मीडिया संस्थानों को तनिक जरूरत महसूस नहीं हुई है कि हाल में जिस तरह वे झूठे साबित हुए हैं, उस पर ईमानदार आत्म-परीक्षण करें। मतदान में बढ़ता अवांछित हस्तक्षेप उनकी चिंता के दायरे से बाहर है।
चुनावों को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है। लेकिन अपने देश में जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उनके बीच वो समय दूर नहीं, जब इन्हें जम्हूरियत का मखौल कहा जाने लगेगा। उत्तर प्रदेश में उप चुनावों के दौरान जिस तरह पुलिस ने अल्पसंख्यक मतदाताओं के वोट डालने में रुकावट डाली, वह कम-से-कम इस राज्य एक पैटर्न बनता दिख रहा है। टेलीविजन/ यू-ट्यूब चैनलों पर दिखे नज़ारों के मुताबिक कहीं मतदाताओं को सीधे धमकाया गया, कहीं वैध दस्तावेज होने के बावजूद उन्हें कथित रूप से मतदान केंद्र में प्रवेश करने से रोका गया, और कहीं पहचान पत्र की जांच के नाम पर इतनी देर की गई कि लोग उकता कर वापस चले जाएं।
सपा नेता अखिलेश यादव और आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने खुलेआम आरोप लगाया कि सत्ताधारी पार्टी के निर्देश पर पुलिस अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन कर रहे हैं। सवाल सचमुच अहम है कि मतदाताओं के पहचान पत्र की जांच से पुलिस अधिकारियों का क्या लेना-देना है? यह काम बूथों पर चुनाव अधिकारी करते हैं। बहरहाल, इन हालात के बावजूद मीडिया के एक बड़े हिस्से को कोई फर्क नहीं पड़ा। शाम होते ही टीवी चैनलों ने एग्जिट पोल का ड्रामा सजा लिया। कुछ चैनलों पर यूपी की सभी नौ विधानसभा सीटों के एग्जिट पोल भी दिखाए गए। खबरी वेबसाइटों और अखबारों ने कमोबेश पूरे आस्था भाव से इन सर्वे नतीजों को प्रकाशित किया।
स्पष्टतः एग्जिट पोल एजेंसियों, टीवी चैनलों और मीडिया संस्थानों को तनिक जरूरत महसूस नहीं हुई है कि हाल में जिस तरह वे झूठे साबित हुए हैं, उस पर ईमानदार आत्म-परीक्षण करें। अब तक दुनिया भर में स्पष्ट हो चुका है कि चुनाव सर्वेक्षण कोई विज्ञान नहीं है, बल्कि यह सपाट अनुमान का एक और नाम है। फिर अगर इनमें मतदाताओं के मूड भांपने के कुछ तत्व हों भी, तो जिस तरह बाहरी कारक अवांछित तरीकों से चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं, उसके असर का अनुमान वे कैसे लगाएंगे? मगर अपने अनुमानों में बिना इस पहलू का डिस्क्लेमर दिए, भविष्यवाणियां कर दी जाती हैं। यह मखौल नहीं, तो और क्या है?