यह सुनिश्चित करना राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि राजनीति का मतलब सत्ता के लिए अभिजात्य वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्धा ना बन जाए, जिसमें आम लोगों की भूमिका सिर्फ दर्शक और मूक मतदाता की रह जाए। Loksabha Election 2024
आम चुनाव के पहले चरण में कम मतदान हुआ। 19 अप्रैल को जिन 102 सीटों पर वोट डाले गए, वहां 2019 की तुलना में 4.4 प्रतिशत कम वोट पड़े। पांच साल पहले इन सीटों पर 69.9 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो इस बार 65.5 प्रतिशत रहा। जिन 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उस दिन वोट पड़े, उनमें सिर्फ छत्तीसगढ़ (2.03 फीसदी) और मेघालय (3.07 प्रतिशत) ऐसे हैं, जहां मतदान प्रतिशत बढ़ा। बाकी हर जगह गिरावट आई। मणिपुर में विशेष परिस्थिति है, इसलिए वहां आई 10.52 प्रतिशत गिरावट को अलग से समझा जा सकता है। Loksabha Election 2024
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इसी तरह नगालैंड में बहिष्कार का आह्वान था, इसलिए वहां 26.09 फीसदी गिरावट का कारण दीगर है। इनके अलावा बाकी तमाम जगहों पर वोट क्यों कम पड़े, यह ऐसा प्रश्न है, जिसकी तह में जाने की जरूरत पड़ेगी। मीडिया और सियासी दायरों में आम चर्चा इस पर सीमित है कि कम मतदान का विभिन्न पार्टियों पर क्या असर होगा। जबकि एक बड़ा सवाल यह है कि जिस देश में हालिया दशकों में आम रुझान मतदान को लेकर जन उत्साह बढ़ने का रहा है, वहां अचानक उदासीनता क्यों दिखी है?
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तेज गरमी का तर्क गले नहीं उतरता, क्योंकि 2004 से लगातार लोकसभा चुनाव इसी मौसम में होते रहे हैं। तो क्या अनुमान लगाया जा सकता है कि मतदाताओं के एक हिस्से में चुनावी राजनीति के प्रति निराशा पैदा हो रही है? आखिर मतदान के लिए ऊंचा उत्साह दिखाने के बावजूद अगर उनकी रोजमर्रा की समस्याएं बढ़ती ही जा रही हों, तो लोगों में चुनाव में अपनी भूमिका और अपनी जिंदगी के लिए उसके महत्त्व को लेकर संशय पैदा हो सकता है। यह सुनिश्चित करना राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि राजनीति का मतलब सत्ता के लिए अभिजात्य वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्धा ना बन जाए, जिसमें आम लोगों की भूमिका सिर्फ दर्शक और मूक मतदाता की रह जाए। अभी मतदान के छह चरण बाकी हैं। उनमें अब नज़र इस पर भी रहेगी कि मतदान प्रतिशत का रुझान कैसा रहता है। अगर उनसे भी पहले चरण जैसे संकेत मिले, तो उसे भारतीय लोकतंत्र के लिए गहरी चिंता का पहलू माना जाएगा।