भाजपा नेताओं ने चुनावी झटकों की वजह पार्टी नेताओं में अहंकार, अति-आत्मविश्वास, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, कार्यकर्ताओं से संवाद भंग होना और टिकट बंटवारे में गलतियों को माना है। परंतु असंतोष की जनक सरकारी नीतियों पर उनका ध्यान नहीं गया है।
आम चुनाव में लगे झटके का असर अब भारतीय जनता पार्टी- और यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी साफ दिख रहा है। वहां उथल-पुथल का वैसा नज़ारा है, जिसे नरेंद्र मोदी काल में असामान्य घटनाक्रम माना जाएगा। शुरुआती प्रतिक्रिया में यह दिखाने की हुई कोशिश कि ‘सब कुछ पहले जैसा है’, अब बेअसर होती दिख रही है। मगर अब भी भाजपा/आरएसएस के नेता अंधेरे में ही तीर चला रहे हैं। असली सवालों का सामना करने का साहस वे नहीं दिखा पाए हैं। भाजपा/आरएसएस नेताओं की तरफ आई प्रतिक्रियाओं पर गौर कीजिए। मोटे तौर पर उन्होंने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में हार और कुछ राज्यों में लगे झटकों की वजह भाजपा की अंदरूनी कमजोरियों को माना है। पार्टी नेताओं में अहंकार, अति-आत्मविश्वास, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, कार्यकर्ताओं से संवाद भंग होना और टिकट बंटवारे में गलतियों का जिक्र उन्होंने किया है। परंतु किसी ने इस ओर झांकने की कोशिश नहीं की कि मतदाताओं में सत्ता-विरोधी गहराती भावनाओं का इन पहलुओं से बहुत कम संबंध है। मुमकिन है, इन बातों की भी कुछ भूमिका रही हो।
मगर असल सवाल सरकार की वो नीतियां और दिशा है, जिसकी वजह से आम जन का जीवन दूभर हुआ है और जिनके खिलाफ आज जमीनी स्तर पर व्यापक असंतोष है। इन भावनाओं की पुष्टि पिछले हफ्ते सात राज्यों की 13 विधानसभा सीटों के आए उप-चुनाव नतीजों से भी हुई है। इसे भाजपा/ आरएसएस नेतृत्व की अल्पदृष्टि ही कहा जाएगा कि उनका ध्यान अब तक इस पहलू पर नहीं टिका है। नतीजतन, नरेंद्र मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में उन्हीं नीतियों पर आगे बढ़ने का इरादा जता रही है और पूरा सत्ता पक्ष इस मामले में प्रधानमंत्री के पीछे लामबंद है। वह ये समझ पाने में विफल है कि इन नीतियों के दुष्परिणामों से लोगों का ध्यान भटकाए रखने की हेडलाइन मैनेजमेंट और हिंदुत्व की खूराक बढ़ाते जाने की रणनीति अब चूक रही है। इस बुनियादी बात से सत्ता पक्ष इसी तरह बेखबर बना रहा, या इसे नज़रअंदाज करता रहा, तो यही कहा जाएगा कि अंधेरे में चलाए जा रहे उसके नेताओं के तीर किसी निशाने पर नहीं पहुंचेंगे।