क्या लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच कॉरपोरेट सेक्टर ने अपना पक्ष चुन रखा है, जिसे सत्ता में बनाए रखने के लिए वह अपना पुरजोर दम लगाती हैं? यह सच है तो, अन्य दलों के लिए बनने वाली प्रतिकूल स्थितियों का अनुमान सहज ही लग सकता है।
लोकसभा चुनाव के लिए मतदान का आखिरी चरण पूरा होते ही एनएचएआई ने राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले टॉल टैक्स में पांच प्रतिशत वृद्धि कर दी। उधर सहकारी कंपनी अमूल ने दूध के दाम दो रुपये लीटर बढ़ा दिए। वित्तीय अखबार कुछ से ऐसी खबरें छाप रहे हैं कि एक बड़ी टेलीकॉम कंपनी चुनाव के तुरंत बाद अपनी दरों में 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करेगी। साथ ही उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली कई अन्य कंपनियां भी मूल्य बढ़ाने के लिए चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रही हैं। यह बिल्कुल नया रुझान है। सरकारी कंपनियों का फैसला सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं से प्रभावित हो, तो उसमें कोई नई बात नहीं है। लेकिन नया ट्रेंड प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों के निर्णय किसी खास पार्टी की राजनीतिक जरूरतों से प्रभावित होने का है। देश के कॉरपोरेट सेक्टर की बड़ी कंपनियों की ऐसी प्राथमिकता क्या संकेत देती है? भारत के शेयर बाजार पर भी इन्हीं कंपनियों का वर्चस्व है। उनकी ऐसी प्राथमिकता का संकेत एग्जिट पोल नतीजों के बाद शेयर बाजार में आया उछाल भी है।
इन सारे संकेतों से किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश की जाए, तो भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक सूरत उभरती है। इस अर्थ में यह माना जाएगा कि लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच कॉरपोरेट सेक्टर ने अपना पक्ष चुन रखा है, जिसे सत्ता में बनाए रखने के लिए वह अपना पुरजोर दम लगाती है। ऐसे में अन्य सियासी पार्टियों के लिए बनने वाली प्रतिकूल स्थितियों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आखिर हर आधुनिक चुनावी लोकतंत्र में राजनीतिक चंदा देने और प्रचार का तंत्र उपलब्ध कराने में कॉरपोरेट की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसीलिए ताजा और संभावित मूल्य-वृद्धियों को राजनीतिक तंत्र के उभरते नए स्वरूप से जोड़ कर देखा जाएगा। अगर कंपनियों के नजरिए से देखें तो ऐसी हर मूल्य वृद्धि से धन निर्मित होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक हालिया इंटरव्यू में धन निर्माताओं को सम्मान का पात्र बताया था। मगर यहां रेखांकित करने का पहलू यह है कि धन का यह निर्माण असल में धन का एक जेब से दूसरी जेब में पहुंचना भर है।