पर्यावरण विशेषज्ञ दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि उस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों- खासकर निर्माण कार्यों से प्राकृतिक संतुलन पर खराब असर पड़ा है। वैसे पश्चिमी घाट अकेला इलाका नहीं है, जो अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण से खतरे में पड़ा है।
केरल के वायनाड ज़िले में भूस्खलन से तकरीबन सवा सौ लोगों की जान चली गई। जख्मी और लापता लोगों पर ध्यान दें, तो हताहत व्यक्तियों की संख्या तीन सौ के करीब पहुंचती है। सोमवार और मंगलवार की रात हुए भूस्खलनों से वायनाड के चूरालमाला, मुंडाक्कई जैसे इलाकों में भारी तबाही मची। वायनाड इलाके में भूस्खलन पहले भी होते रहे हैं। लेकिन इतनी बड़ी तबाही हालिया यादाश्त में नहीं है। प्राकृतिक दुर्घटनाएं जीवन का हिस्सा हैं, इसलिए इनके किसी निश्चित कारण की पहचान कर पाना कठिन होता है। लेकिन कुछ संकेत ऐसे होते हैं, जिन पर ध्यान दिया जाए, तो बचाव के बेहतर उपाय किए जा सकते हैं। जिस इलाके में ये हादसा हुआ, वह पश्चिमी घाट कहे जाने वाले क्षेत्र का हिस्सा है। पर्यावरण विशेषज्ञ दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि उस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों- खासकर निर्माण कार्यों से प्राकृतिक संतुलन पर खराब असर पड़ा है। इस लिहाज से पश्चिमी घाट अकेला इलाका नहीं है, जो अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण से खतरे में पड़ा है।
हाल के वर्षों में ऐसी सबसे ज्यादा घटनाएं संभवतः उत्तराखंड में हुई हैँ। उत्तरकाशी में आईं दरारों के अलावा चार धाम तीर्थ यात्रा मार्ग पर जमीन धंसने की बढ़ी घटनाएं पारिस्थिकी की उपेक्षा का प्रत्यक्ष परिणाम मानी गई हैँ। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने देश में ऐसी बुनियादी समस्याओं पर विचार-विमर्श का दायरा लगातार सिकुड़ता गया है। मीडिया में और विशेषज्ञों के बीच ऐसी चर्चा होती जरूर है, लेकिन वह राजनेताओं की कान तक नहीं पहुंचती। वायनाड की त्रासदी के बाद भी ऐसी कोई गंभीर चर्चा शुरू होगी, जिससे विकास एवं पर्यावरण के बीच संतुलन पर समझ बनाने में मदद मिले, इसकी संभावना कम है। जबकि इस त्रासदी का प्रभाव दूर-दूर तक गया है। भूस्खलन से प्रभावित मुंडाक्कई चाय के बगानों वाला एक छोटा सा कस्बा है, जहां असम और पश्चिम बंगाल के लोग भी बड़ी संख्या में काम करते हैं। फिलहाल वहां पहुंचना भी मुश्किल बना हुआ है, क्योंकि चूरालमाला और मुंडाक्कई के बीच का पुल का बह गया है। केरल में और भी बारिश की आशंका है, जिससे यह त्रासदी और गंभीर रूप ले सकती है।