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क्या है सरकार की मंशा?

कमजोर सरकारों के दौर में जब अदालतें कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में जाकर आदेश देती थीं, तब वह भी संविधान की भावना के अनुरूप नहीं था। अब सरकार ने न्यायपालिका के लिए एसओपी तैयार किया है, तो इस पर भी वही बात लागू होती है।

भारत की संवैधानिक व्यवस्था के तीन प्रमुख अंगों- विधायिका, कार्यकपालिका और न्यायपालिका- में कोई एक दूसरे लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर (एसओपी) बनाए, यह बात गले नहीं उतरती। दरअसल, ऐसा करने की कोई व्यवस्था संविधान के तहत नहीं है। कमजोर सरकारों के दौर में जब अदालतें कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में जाकर आदेश देती नजर आती थीं, तब भी संविधान की भावना से परिचित लोगों ने उस पर एतराज किया था। लेकिन उसमें कम से एक बात जरूर थी कि न्यायपालिका कोई एक दल या व्यक्ति से नियंत्रित नहीं थी। इसलिए दलगत हित सधने या नियंत्रण कायम होने का अंदेशा तब नहीं था। मगर शक्ति संतुलन बदल गया है। केंद्र में संख्या बल के लिहाज से एक मजबूत सरकार है, जिसने धीरे-धीरे राज्य के सभी अंगों और संस्थाओं पर अपना प्रभाव कायम कर लिया है। न्यायपालिका इस प्रभाव से पूरी तरह अप्रभावित है, यह भी नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद न्यायपालिका सरकार के आंख का कांटा बनी हुई है, यह उसकी तरफ से बार-बार और कई कोणों से किए गए जुबानी हमलों से जाहिर है।

बहरहाल, अब बात वहीं तक नहीं रही। अब खबर है कि सरकार ने न्यायपालिका के लिए एक एसओपी तैयार किया है। इसके जरिए यह तय करने की कोशिश की गई है कि सरकार के जुड़े मामलों की न्यायिक प्रक्रिया होगी और सरकारी अधिकारियों से जज किस तरह का व्यवहार नहीं कर सकेंगे। कहा गया है कि अगर कोर्ट किसी मामले की जांच के लिए समिति बनाना चाहता है, तो वह सिर्फ इतना निर्णय ही लेगा। समिति में कौन होगा, यह पूरी तरह सरकार तय करेगी। कोर्ट अगर किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करता है, तो एसओपी में कहा गया है कि जिस बेंच के आदेश की अवहलेना हुई है, वह अवमानना मामले की सुनवाई नहीं करेगा। साथ ही कोर्ट किसी नीति के निर्माण के लिए सरकार को समयसीमा नहीं बताएगा। क्या अदालतें इस एसओपी का पालन करने के लिए मजबूर हैं? क्या वे सचमुच ऐसा करेंगी? एक बड़ा प्रश्न है, जिसका सीधा संबंध न्यायपालिका की स्वायत्तता से है। इस मामले में अब नजर अदालतों के रुख पर रहेगी।

By NI Editorial

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