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जापान में सियासी भूकंप

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साफ है कि मतदाता बढ़ती महंगाई, घटते जीवन स्तर, शून्य ग्रोथ वाली अर्थव्यवस्था, और देश में आम मायूसी के माहौल से ज्यादा चिंतित हैं। उन्होंने अपनी नाराजगी अपने वोट के जरिए जताई है। लेकिन इससे कोई राह नहीं निकली है।

जापान में नए प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा का मध्यावधि चुनाव कराने का दांव उलटा पड़ा। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबंधन ने 15 साल बाद बहुमत गंवा दिया है। खुद एलडीपी को 57 सीटों का नुकसान हुआ, जबकि उसका गठबंधन 215 सीटों पर सिमट गया। 465 सदस्यों वाली पिछली संसद में सत्ताधारी गठबंधन के 288 सदस्य थे, जिनमें 247 खुद एलडीपी के थे। फुमियो किशिदा के नेतृत्व वाली पूर्व सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोपों के बाद पार्टी ने अपना नेता बदला। तब इशिबा प्रधानमंत्री बने और तुरंत नया जनादेश हासिल करने का फैसला किया। इशिबा ने घोटालों और देश में गहराते आर्थिक संकट से मतदाताओं का ध्यान हटाने के लिए उग्र विदेश नीति अपनाने का दांव चला। उन्होंने चीन को घेरने के लिए चार देशों के क्वॉड को “एशियाई नाटो” में तब्दील करने का मुद्दा उछाला।

लेकिन साफ है कि मतदाता बढ़ती महंगाई, घटते जीवन स्तर, शून्य ग्रोथ वाली अर्थव्यवस्था, और देश में आम मायूसी के माहौल से ज्यादा चिंतित हैं। उन्होंने अपनी नाराजगी अपने वोट के जरिए जताई है। लेकिन इससे कोई राह नहीं निकली है। बल्कि जापान राजनीतिक अस्थिरता के ऐसे दौर में पहुंचता दिख रहा है, जिससे उसका आर्थिक संकट और गहरा हो सकता है। जापान की राजनीतिक व्यवस्था कुछ ऐसी है, जिसमें 1955 में अपनी स्थापना के बाद से ही एलडीपी शासक वर्गों की पसंद रही है। उस पर अमेरिका का भी वरदहस्त रहा है।

दूसरे विश्व युद्ध में पराजय के बाद अमेरिका की देखरेख में ही वहां संविधान लिखा गया और आज भी वहां अमेरिका का सबसे बड़ा सैनिक अड्डा है। इस नाते जापान की सियासत पर भी अमेरिका का दबदबा बना रहा है। इन सबके परिणाम स्वरूप 1955 के बाद से सिर्फ दो बार- 1993 और 2009 में- एलडीपी तीन-तीन वर्षों के लिए सत्ता से बाहर हुई। मगर इस बार सूरत अलग है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद का काल आर्थिक शक्ति के रूप में जापान के उदय का रहा, जिससे लोग आशावादी बने रहे। अब आर्थिक पराभव का युग है, जिसने लोगों में मायूसी भर दी है। उसका एक संकेत चुनाव नतीजों से उभरा है।

By NI Editorial

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