इजराइल अपने को 1967 की सीमा तक सीमित करे और बाकी इलाकों पर स्वतंत्र फिलस्तीन बने, यह ऐसा फॉर्मूला है, जिसका समर्थन पश्चिमी देश भी करते रहे हैं। प्रश्न यही है कि अभी जारी तमाम कूटनीतिक प्रयास क्या यह मकसद हासिल कर पाएंगे?
इजराइल-फिलस्तीन युद्ध को रोकने की कूटनीतिक कोशिशें तेज हुई हैं, लेकिन इनका कितना असर होगा, यह संदिग्ध है। फिलहाल, दो बड़े स्तरों पर ऐसे प्रयास हुए हैं। एक तो अरब लीग और इस्लामी सहयोग संगठन के साझा प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य देशों की राजधानियों का दौरा शुरू किया है। इसके पहले मुकाम के तौर पर यह दल बीजिंग गया, जहां चीन के साथ उसकी विचारों की एकता उभरी। इसका दूसरा मुकाम मास्को है। रूस के रुख से साफ है कि फिलस्तीन मामले में उसका रुख अरब और इस्लामी देशों के समान ही है। मगर समस्या तब आएगी, जब ये दल वॉशिंगटन, पेरिस और लंदन जाएगा। ये तीन वो देश हैं, जो गजा पर इजराइली हमलों को उसकी आत्म-रक्षा की कार्रवाई मानते हैं और इसलिए वे युद्धविराम की मांग का विरोध करते रहे हैं। गौरतलब यह है कि इजराइल पर अगर सचमुच कोई देश दबाव बनाने की स्थिति में है, तो वह अमेरिका ही है। इसलिए जब तक अमेरिका के रुख में बदलाव नहीं आता, किसी वास्तविक प्रगति की अपेक्षा नहीं है।
बंधक 50 इजराइलियों और 150 फिलस्तीनियों की रिहाई के लिए युद्ध को ‘मानवीय आधार पर रोकने’ का हुआ अस्थायी समझौता भी परोक्ष रूप से अमेरिकी कूटनीति से ही संभव हो पाया है। इस बीच विश्व जनमत के एक बड़े हिस्से के विचारों की अभिव्यक्ति के लिहाज से मौजूदा अध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका की पहल पर ब्रिक्स-11 देशों की हुई बैठक एक महत्त्वपूर्ण घटना रही है। ब्रिक्स-11 ने अपने साझा बयान में युद्ध रोकने के लिए दीर्घकालिक समझौते की मांग की है और यह दोहराया है कि फिलस्तीनियों के स्वतंत्र देश की स्थापना ही इस मसले का स्थायी हल है। इजराइल अपने को 1967 की सीमा तक सीमित करे और बाकी इलाकों पर स्वतंत्र फिलस्तीन बने, यह ऐसा फॉर्मूला है, जिसका समर्थन पश्चिमी देश भी करते रहे हैं। लेकिन इसे लागू कराने को लेकर वे कभी गंभीर नहीं हुए। ताजा संकट के दौरान भी उन्होंने इस बारे में अपने रुख को दोहराया है। मगर प्रश्न यही है कि अभी जारी तमाम कूटनीतिक प्रयास क्या यह मकसद हासिल कर पाएंगे?