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प्रतिस्पर्धा से क्यों डरे?

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असल मुद्दा यह है कि आखिर भारतीय अर्थव्यवस्था में बाहरी कारोबार से प्रतिस्पर्धा एवं मुनाफा देने की क्षमता इतनी कमजोर क्यों बनी हुई है? इस प्रश्न का ठोस उत्तर नहीं ढूंढा गया, तो भारत की आर्थिक बदहाली बढ़ती ही जाएगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता इतनी कमजोर क्यों है कि हर व्यापार मुकाबले में वह पिट जाती है? देश सही दिमागी हालत में हो तो  इस सवाल से उसकी नींद उड़ जानी चाहिए। बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों से भारत को नुकसान की आशंका से ग्रस्त नरेंद्र मोदी सरकार ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) करार से अंतिम मौके पर खुद को अलग कर लिया था। तब हौव्वा बनाया गया कि ऐसा समझौते में शामिल अन्य देशों के रास्ते चीन की उत्पादों डंपिंग से बचने के लिए किया गया। उसके बाद मोदी सरकार ने द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों का रास्ता अपनाया। यूएई, ऑस्ट्रेलिया, यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन आदि से ऐसे करार हुए। ब्रिटेन सहित कई देशों से द्विपक्षीय समझौते पर बातचीत चल रही थी। मगर अब अचानक सरकार ने ऐसी सभी वार्ताओं पर विराम लगाने का फैसला किया है।

वजह हाल के वर्षों में हुए सभी ऐसे समझौतों से भारत को हो रहे बड़े व्यापार घाटे को बताया गया है। साथ ही सरकार ने 2010 में आसियान से हुए करार का भी जिक्र किया है, जिसकी वजह से भारत को लगातार व्यापार घाटा हुआ है। कहा जाता है कि उसके परिणामस्वरूप कई भारतीय कारोबार तबाह हो गए। मोदी सरकार ने आसियान से कई बार इस समझौते पर पुनर्विचार को कहा है, जिसे उसे स्वीकार नहीं किया है। इस बीच यूएई से हुए बहुचर्चित करार के बारे में सामने आया है कि इस वित्त वर्ष की पहली छमाही में वहां से आयात 52 फीसदी बढ़ा, जबकि निर्यात में सिर्फ 11.45 प्रतिशत का इजाफा हुआ।

इसके अतिरिक्त एक नई चिंता यह पैदा हुई है कि इन समझौतों के कारण भारतीय निवेशकों को वहां जाकर निवेश करने के अवसर मिले हैं, जिसका वे खूब लाभ उठा रहे हैं। जबकि भारत को खुद बड़े निवेश की आवश्यकता है। यानी नुकसान ही नुकसान! तो अब खुशफहमियों से निकलने की जरूरत है। असल मुद्दा यह है कि आखिर भारतीय अर्थव्यवस्था में बाहरी कारोबार से प्रतिस्पर्धा एवं मुनाफा देने की क्षमता इतनी कमजोर क्यों बनी हुई है? इस प्रश्न का ठोस उत्तर नहीं ढूंढा गया, तो भारत की आर्थिक बदहाली बढ़ती ही जाएगी।

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