यह आज की हकीकत है कि वस्तु व्यापार में चीन की उपेक्षा करना किसी देश के लिए- जिनमें विकसित देश भी शामिल हैं- संभव नहीं है। मगर भारत की अलग परिस्थिति है। चीन के साथ सीमा विवाद भारत की एक बड़ी समस्या बना हुआ है।
आर्थिक सर्वेक्षण (2023-24) में भारत की चीन संबंधी “दुविधा” खुल कर सामने आई है। जो कहा गया है, उसके मुताबिक नीति निर्माता संभवतः इस निष्कर्ष पर हैं कि भारत फिलहाल चीन का प्रतिस्पर्धी होने की स्थिति में नहीं है। जमीनी सूरत यह है कि इस होड़ में भारत बहुत पीछे छूट गया है। सर्वे में स्वीकार किया गया हैः ‘यह नजरिया विवेक-सम्मत नहीं होगा कि चीन मैनुफैक्चरिंग में जो जगह खाली कर रहा है, भारत उसे हासिल कर लेगा। असल में हालिया आंकड़ों से तो इस सोच पर भी संदेह खड़ा हुआ है कि चीन हलके मैनुफैक्चरिंग से हट रहा है।’ सर्वे के मुताबिक इसके मद्देनजर भारत के सामने दो सवाल हैः पहला यह कि क्या बिना चीन के सप्लाई चेन से जुड़े भारत के लिए वैश्विक सप्लाई चेन से जुड़ना संभव है? दूसरा यह कि चीन से सामान आयात और वहां से पूंजी आयात करने के बीच सही संतुलन क्या होगा?
सर्वे में राय जताई गई है कि सामग्रियों के आयात पर पूरी निर्भरता के बजाय बेहतर होगा कि वहां की पूंजी को भी भारत आने दिया जाए। कहा जा सकता है कि ये दोनों गंभीर प्रश्न हैं, जिन पर राष्ट्रव्यापी चर्चा की जरूरत है। यह आज की दुनिया की हकीकत है कि वस्तु व्यापार में चीन की उपेक्षा करना किसी देश के लिए- जिनमें विकसित देश भी शामिल हैं- संभव नहीं है। मगर भारत की अलग परिस्थिति है। चीन के साथ सीमा विवाद एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ऐसे में एक चुनौती राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक बेहतरी के बीच संतुलन बनाने की भी है। कोई सरकार इस दिशा में गंभीर प्रयास करती दिखे, तो उसका स्वागत किया जाएगा। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के साथ दिक्कत यह है कि वह सही काम भी कई बार गलत वजहों से करती नजर आती है। अभी हाल में अडानी ग्रुप सहित कई कॉरपोरेट घरानों की तरफ से चीनी पूंजी और विशेषज्ञों पर लगी रोक हटाने की मांग की गई है। क्या उनसे ही सर्वे प्रभावित हुआ है? यह नव-चिंतन राष्ट्र-हित में है या कुछ कॉरपोरेट्स के हित में, इस बारे में स्पष्टीकरण की जरूरत है।