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मानव की गरिमा नहीं

अपने देश में इनसानी जान की कोई कीमत नहीं है। जो हताहत हुआ, उसे उसकी किस्मत मान कर लोग आगे बढ़ते हैं। और अगर हादसे का जिम्मेदार कोई धार्मिक व्यक्ति हो, तब तो उसकी कोई वैधानिक जवाबदेही भी तय नहीं होती!

हाथरस में भक्ति भाव से प्रवचन सुनने गए हजारों लोगों के बीच भगदड़ मचने के बाद जो दृश्य वहां से सामने आए, वे हृदयविदारक हैं। किसी संवेदनशील व्यक्ति के मन में उनसे अपने समाज को लेकर एक तरह की वितृष्णा भी पैदा हो सकती है। जिस तरह शवों को लॉरी में लादा गया या लोग अपने परिजनों को कंधों पर उठा कर ले जाने को मजबूर हुए, उसे देख कर सिर्फ यही ख्याल उभरता है कि हमारे देश में जीते जी या फिर मृत्यु के बाद भी मानव जीवन की कोई गरिमा नहीं है। जिस तरह घंटों वहां लाशें बिखरी रहीं और किसी प्रकार की इलाज सहायता का अभाव रहा, उससे यही संदेश गया कि कोई धंधेबाज जहां चाहे, बिना किसी जिम्मेदारी या भय के अनियंत्रित भीड़ जुटा सकता है और अगर हादसा हुआ, तो उसके दुष्परिणामों से भी बचा रह सकता है। शर्त बस यह है कि उसने धर्म का लाबादा ओढ़ रखा हो और इस कारण सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों तक उसकी पहुंच हो।

हाथरस में भोले बाबा के धार्मिक आयोजन के बारे सामने आई जानकारियां बताती हैं कि वहां भीड़-भरे आयोजन से संबंधित हर नियम का उल्लंघन किया गया। लापरवाही की हद यहां तक थी कि हजारों की भीड़ अपेक्षित होने के बावजूद प्राथमिक चिकित्सा या एंबुलेंस जैसी बुनियादी सुविधाओं के इंतजाम भी नहीं किए गए। हादसा नहीं होता, इन बातों पर आखिर किसका ध्यान जाता? गौरतलब है कि यह कोई ऐसा पहला हादसा नहीं है। बल्कि मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक गुजरे दशक में सिर्फ धार्मिक आयोजनों में भगदड़ मचने की 13 बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं। इनमें सैकड़ों लोगों की जान गई है। मगर संभवतः हर घटना एक दिन की बड़ी सुर्खी बन कर रह गई। क्यों? बात घूम-फिर कर वहीं आ जाती है। अपने देश में इनसानी जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती। जो हताहत हुआ, उसे उसकी किस्मत मान कर लोग आगे बढ़ते हैं। नतीजा यह होता है कि किसी हादसे से कुछ नहीं सीखा जाता। और अगर हादसे का जिम्मेदार कोई धार्मिक पुरुष हो, तब तो उसकी कोई वैधानिक जवाबदेही भी तय नहीं होती!

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