स्वास्थ्य बीमा की सरकारी योजनाओं पर सैकड़ों करोड़ रुपये केंद्र और राज्य सरकारें खर्च कर रही हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उनसे आम जन को मामूली राहत ही मिली है। अब भी स्वास्थ्य पर अपनी जेब से लोगों का खर्च बेहद ऊंचा बना हुआ है।
भारत में अपनाए गए बीमा आधारित स्वास्थ्य देखभाल के मॉडल की हकीकत एक गैर-सरकारी संस्था ने अपने सर्वेक्षण रिपोर्ट से बताई है। स्वास्थ्य बीमा की सरकारी योजनाओं पर सैकड़ों करोड़ रुपये केंद्र और राज्य सरकारें खर्च कर रही हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उनसे आम जन को मामूली राहत ही मिली है। अब भी स्वास्थ्य पर अपनी जेब से लोगों का खर्च बेहद ऊंचा बना हुआ है। खास बात यह कि जो तबका जितना गरीब है, उन पर यह बोझ उतना ज्यादा है। रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था- अर्थ ग्लोबल सेंटर फॉर रैपिड इनसाइट्स- ने यह सर्वे सभी 543 लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में किया। इस दरम्यान सिर्फ एक सवाल पूछा गया कि पिछली बार जब आप या आपके घर का कोई व्यक्ति अस्पताल में भर्ती हुआ, तो वहां भुगतान का प्राथमिक माध्यम क्या था? इस सर्वे के लिए आबादी को तीन वर्गों में बांटा गया- जिनके पास चार पहिया वाहन हैं, जिनके पास दो पहिया वाहन हैं, और जिनके पास कोई वाहन नहीं है। बिना वाहन वाले लोगों में से 60 फीसदी ने कहा कि पूरा खर्च उन्होंने अपनी जेब से किया।
सरकारी योजनाओं के माध्यम से भुगतान 25 फीसदी लोगों ने किया, जबकि निजी बीमा पॉलिसी से नौ प्रतिशत लोगों ने भुगतान किया था। छह प्रतिशत लोगों का भुगतान रोजगार-दाता की तरफ से किया गया था। दो पहिया वाहन रखने वाले लोगों में ये संख्याएं क्रमशः 48 प्रतिशत, 31 फीसदी, 10 फीसदी और 11 प्रतिशत रहीं। चार पहिया वाहन मालिकों में 40 प्रतिशत लोगों ने खर्च अपनी जेब से चुकाया, 24 प्रतिशत को सरकारी योजनाओं का लाभ मिला, 15 प्रतिशत का खर्च रोजगार-दाता कंपनी ने उठाया, जबकि 20 फीसदी लोगों ने निजी बीमा पॉलिसी से अपना इलाज कराया। लेकिन यह अस्पताल में भर्ती होने के बाद के खर्चों का ब्योरा है। इलाज में उसके पहले के चरणों में जो खर्च आया, वह सबको अपनी जेब से ही चुकाना पड़ा। स्पष्टतः यह कारगर नहीं है। यह दुनिया भर का भी तजुर्बा है कि बेहतर स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित समग्र इलाज ढांचे से ही दी जा सकती है।