गिग वर्कर्स में 97.6 प्रतिशत की सालाना आय पांच लाख रुपये से कम है। 77.6 फीसदी तो सालाना ढाई लाख से भी कम कमाते हैं। अब इस काम को रोजगार माना जा रहा है, तो यह अर्थव्यवस्था की दुर्दशा ही बताता है।
भारत में पिछले अनेक वर्षों से जिस काम की चर्चा के साथ रोजगार पैदा होने का खूब ढिंढोरा पीटा गया है, उसकी असलियत क्या है, उस पर एक ताजा अध्ययन रिपोर्ट से रोशनी पड़ी है। काम का यह क्षेत्र गिग वर्कर्स का है। गिग वर्कर्स की परिभाषा नीति आयोग ने उन रोजगारशुदा व्यक्तियों के रूप में की है, जो परंपरागत मालिक- कर्मचारी व्यवस्था से बाहर बने रहते हैं। इनकी संख्या एक करोड़ पार कर चुकी है। 2030 तक ये संख्या दो करोड़ 35 लाख तक पहुंच जाने का अनुमान है। अब सामने आया है कि ऐसे 97.6 प्रतिशत कर्मियों की सालाना आय पांच लाख रुपये से कम है।
असल में 77.6 फीसदी गिग वर्कर्स की सालाना कमाई तो ढाई लाख रुपये से भी कम है। महज 2.6 प्रतिशत ऐसे गिग वर्कर हैं, जो पांच से साढ़े सात लाख रुपये तक हर साल कमाते हैं। लेकिन इस श्रेणी में ज्यादातर वैसे कर्मी हैं, जो गिग फॉर्मेट में सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के कार्य से जुड़े हुए हैं। मार्केट रिसर्च एजेंसी टीमलीज डिजिटल की रिपोर्ट के मुताबिक कम-से-कम 21 प्रतिशत गिग वर्कर रोजाना 12 घंटों से भी ज्यादा काम करते हैं। गिग वर्क के तहत मुख्यतः डिलिवरी बॉयज जैसे प्लैटफॉर्म वर्कर्स और कैब ड्राइवर आदि आते हैं। अब टीमलीज डिजिटल के इस कथन को भारत की आर्थिक दुर्दशा का ही संकेत माना जाएगा कि डिलवरी बॉयज की स्थिति फिर भी ऑनलाइन सप्लाई से संबंधित डार्क स्टोर ऑपरेटर्स से बेहतर हैं, जिनकी आमदनी 15 से 30 हजार रुपये महीने तक सीमित है।
मोटे तौर पर अभी तक स्थिति यही है कि इस तरह के सारे कर्मी किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के हकदार नहीं हैं। रोजगार की पारंपरिक परिभाषा ऐसे काम की रही है, जिसमें एक निश्चित पारिश्रमिक का समय पर भुगतान, काम के तय घंटों, वेतन के साथ अवकाश और न्यूनतम सामाजिक सुरक्षाओं का आश्वासन हो। उस परिभाषा के तहत गिग वर्क को रोजगार मानना अतार्किक मालूम पड़ता है। इसके बावजूद सरकार ऐसे काम के अवसरों को रोजगार मानने लगी है, तो यही कहा जाएगा कि इसके भरोसे अर्थव्यवस्था चमकने की उम्मीदें रेत का महल भर टिकी हैं।