फ्रांस में वामपंथी मोर्चा सरकार बना सकेगा या नहीं, अभी यह तय नहीं है। लेकिन उसकी सफलता ने यह जरूर बताया है कि अगर जनता के सामने विश्वसनीय नीतिगत विकल्प रखे जाएं, तो लोग उसे आजमाते जरूर हैं।
यूरोपीय संसद के चुनाव में अपने देश में धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली की बड़ी जीत के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संसद को भंग कर एक बड़ा दांव खेला। उनका दांव था कि पिछले दो मौकों की तरह इस बार भी धुर-दक्षिणपंथ को रोकने के लिए सभी ताकतें उनकी पार्टी के पक्ष में लामबंद हो जाएंगी। लेकिन इस बार उनका दांव आधा ही कामयाब हुआ। असल में नौ जून को नए चुनाव की घोषणा के बाद फ्रांस में कुछ अप्रत्याशित-सा हुआ। अचानक सभी वामपंथी समूह एकजुट हो गए। उन्होंने अपना मोर्चा- न्यू पॉपुलर फ्रंट (एनपीएफ) बना कर मतदाताओं के सामने एक रैडिकल एजेंडा रख दिया। उससे जमीनी सूरत करिश्माई ढंग से बदली। आखिरकार फ्रांस ने धुर-दक्षिणपंथ को रोकने में सफलता पा ली। मगर इस बार इसकी कमान एनपीएफ के हाथ में है।
पहले दौर के मतदान में नेशनल रैली ही पहले नंबर पर रही, मगर दूसरा स्थान एनपीएफ ने हासिल कर लिया। उसके बाद मैक्रों का मोर्चा लेफ्ट के साथ तालमेल करने पर मजबूर हो गया। उसका ठोस नतीजा निकला। दूसरे चरण के मतदान में एनपीएफ 577 सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में 182 सीटें जीत कर पहले स्थान पर आया। लेफ्ट की बैसाखी पर मैक्रों के नेतृत्व वाले मोर्चे एनसेंबल ने 168 सीटें जीतीं, जबकि नेशनल रैली 143 सीटों पर सिमट गई। एनपीएफ ने अपने रैडिकल एजेंडे में न्यूनतम वेतन में वृद्धि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजट में भारी बढ़ोतरी, ग्रीन एनर्जी में बड़े निवेश, रिटायरमेंट की उम्र घटाने आदि जैसे वादे किए हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण वादा जरूरी खाद्य पदार्थों, बिजली, गैस और पेट्रोल की मूल्य सीमा लागू करने का है। संसाधन जुटाने के लिए उसने धनी लोगों पर आय कर में वृद्धि, वेल्थ टैक्स की वापसी (जिसे मैक्रों ने रद्द कर दिया था), और यूरोप में सबसे ऊंची दर के साथ उत्तराधिकार कर लागू करने की एक विस्तृत योजना इस मोर्चे ने जनता के सामने रखी है। मोर्चा सरकार बना सकेगा या नहीं, अभी तय नहीं है। लेकिन उसकी सफलता ने यह जरूर बताया है कि अगर जनता के सामने विश्वसनीय नीतिगत विकल्प रखे जाएं, तो लोग उसे आजमाते जरूर हैं।