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जूलियन असांज की आजादी

असांज ने अमेरिका से समझौता कर लिया है। उन्हें अब अमेरिका नहीं जाना होगा। ऑस्ट्रेलिया के करीब अमेरिकी द्वीप समूह मरियाना में स्थित एक अदालत में उनकी पेशी होगी। अदालत उन्हें पांच साल कैद सुनाएगी, जो वे पहले ही भुगत चुके हैं।

बहुत से आदर्शवादी लोगों को विकीलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज का यह निर्णय पसंद नहीं आएगा। उन्हें इस बात की शिकायत हो सकती है कि असांज ने पत्रकारिता के एक आम चलन को अपराध स्वीकार कर लिया। असांज पर आरोप था कि उन्होंने अपने पास “राष्ट्रीय सुरक्षा” से संबंधित सामग्रियां रखीं और 2010 में उन्हें प्रकाशित किया। जबकि आम जानकारी है कि ऐसी सामग्रियां अक्सर अमेरिका के बड़े अखबारों तक पहुंचती हैं- बल्कि कई बार पहुंचाई जाती हैं। अंतर सिर्फ यह है कि वे अखबार उनके जरिए अमेरिकी हित साधते हैं, जबकि असांज ने अपनी वेबसाइट विकीलिक्स के जरिए अमेरिका के ऐसे कृत्यों को जग-जाहिर करने वाले दस्तावेज जारी कर दिए, जिन्हें मानव अधिकारों के हनन और युद्ध अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है। असांज ने ये दस्तावेज अमेरिकी सेना में काम करने वाले खुफिया विश्लेषक ब्रायन मैनिंग (यौन परिवर्तन के बाद चेल्सी मैनिंग) से हासिल किए थे। मैनिंग की तभी गिरफ्तारी हो गई थी और वे सजा भुगत चुकी हैं। इस रूप में जासूसी मैनिंग की थी, असांज पर इसका प्रत्यक्ष आरोप नहीं था।

बहरहाल, प्रत्यर्पण की अमेरिकी अर्जी का ब्रिटिश अदालत में सामना कर रहे असांज ने अब अमेरिका से समझौता कर लिया है। इसके तहत उन्हें अमेरिका नहीं जाना होगा, बल्कि उनके अपने देश ऑस्ट्रेलिया के करीब अमेरिकी नियंत्रण वाले द्वीप समूह मरियाना में स्थित अमेरिकी अदालत में पेश होना होगा। अदालत उन्हें पांच साल कैद सुनाएगी, जो वे पहले ही भुगत चुके हैं। इस तरह वे आजाद होकर अपने वतन लौट जाएंगे। उधर अमेरिका इस रूप में अपनी जीत देखेगा कि जिस अपराध को वह साबित करना चाहता था, उसे खुद असांज ने मान लिया। असांज अमेरिका के गले की फांस बने हुए थे। वह फ्री प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार होने के उसके दावे पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न थे। अब अमेरिका बार-बार इस पर जवाब देने की मजबूरी से बच जाएगा। लेकिन यह प्रश्न बना रहेगा कि क्या एक पत्रकार का कथित गोपनीय दस्तावेज हासिल कर सार्वजनिक हित में उन्हें प्रकाशित करना अपराध है? फिलहाल यह मनवाने की अपनी जिद में अमेरिका कामयाब रहा है।

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By NI Editorial

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