भारत के श्रम बाजार में अब सिर्फ 15.9 महिलाएं मौजूद हैं। ताजा आंकड़ा 2022-23 का है। चार साल पहले यानी 2018-19 में भारत में श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 21.9 प्रतिशत थी।
यह आंकड़ा चौंकाने वाला- और संभवतः आहत करने वाला भी है कि नियमित वेतन वाली नौकरियों के दायरे में भारत के श्रम बाजार में अब सिर्फ 15.9 महिलाएं मौजूद हैं। ताजा आंकड़ा 2022-23 का है। चार साल पहले यानी 2018-19 में भारत में श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 21.9 प्रतिशत थी। श्रम शक्ति में भागीदारी का अर्थ उन लोगों से होता है, जो या तो नौकरी में हों, या नौकरी की तलाश में हों। इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता, जिन्हें नौकरी की जरूरत ना हो, या जिन्होंने नौकरी मिलने की संभावना से निराश होकर इसे ढूंढना ही छोड़ दिया हो। ताजा आंकड़े सरकार की आवधिक श्रम शक्ति सर्वे (पीएलएफएस) रिपोर्ट से सामने आए हैं। ये आंकड़े हाल में जारी किए गए। इस सर्वे में अपना कोई काम-धंधा कर रहे लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की श्रेणी में गिना गया है। इस आधार पर बेरोजगारी घटने और महिलाओं-पुरुषों दोनों की श्रम शक्ति में भागीदारी बढ़ने का दावा किया गया है। बीते हफ्ते इस बात का जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया। लेकिन जब एक अंग्रेजी अखबार ने वेतनभोगी कर्मियों के बीच श्रम शक्ति भागीदारी दर का विश्लेषण किया, तो विपरीत तस्वीर सामने आई। सूरत यह उभरी कि 2019-19 के बाद से लगातार श्रम शक्ति में वेतनभोगी नौकरी वाली महिलाओं की संख्या गिरी है। पीएलएफएस का यह आंकड़ा गौरतलब है कि देश के कुल कामकाजी लोगों में 57.3 प्रतिशत लोग स्वरोजगार में हैं, लेकिन महिलाओं के बीच यह संख्या 65.3 फीसदी है। बहरहाल, सरकारी दावे के मुताबिक मान लिया जाए कि स्वरोजगार भी रोजगार है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि स्वरोजगार वाले लोगों की औसत आय क्या है। खुद पीएलएफएस बताता है कि 2022-23 में स्वरोजगार वाले व्यक्तियों की औसत मासिक आय 13,347 रुपये थी। इतनी रकम पर जिंदगी गुजारने वाला परिवार आखिर किस वर्ग में आएगा और उसके उपभोग का स्तर क्या होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। सार यह है कि आंकड़ों के हेरफेर से खुशहाली की तस्वीर सिर्फ सुर्खियों में पेश की जा सकती है- जबकि आंकड़ों के बारीक विश्लेषण से उसकी पोल खुल जाती है।