तीन कृषि कानूनों के खिलाफ 20 महीनों तक संघर्षरत रहने के बाद एसकेएम को कामयाबी मिली। लेकिन इस तरीके को हर संघर्ष की सफलता का सूत्र मान लेना कितना उचित है, इस पर एसकेएम के “अ-राजनीतिक” गुट को अवश्य विचार करना चाहिए।
अपने को “गैर राजनीतिक” कहने वाले संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का संघर्ष लगातार गतिरोध का शिकार बना हुआ है, तो उसके पीछे खुद इस गुट की अपनी सोच कम जिम्मेदार नहीं है। एक तरीका एक मामले में सफल हुआ, तो उसे ही अन्य या कहीं व्यापक मुद्दों पर अपनाने की समझ समस्याग्रस्त है। 2020 में तीन कृषि कानून पारित होने से किसानों के सामने एक फौरी चुनौती पेश आई थी, जिस पर प्रतिरोध जताने के लिए के वे दिल्ली आए। चूंकि दिल्ली में उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया गया, तो तीन दिशाओं से आए किसान दिल्ली से लगी तीन सीमाओं पर बैठ गए। 20 महीनों इसी रूप संघर्षरत रहने के बाद उन्हें कामयाबी मिली। इसे हर संघर्ष में सफलता का सूत्र मान लेना कितना उचित है, इस पर “अ-राजनीतिक” गुट को अवश्य विचार करना चाहिए।
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इस गुट ने बाकी समूहों की तुलना में खुद को अधिक रैडिकल दिखाने के लिए एसकेएम की एकता तोड़ दी। जब एसकेएम ट्रेड यूनियनों और अन्य जन संगठनों के साथ मिल कर अपने आंदोलन को बड़ा संदर्भ देने की दिशा में बढ़ रहा था, तब इस समूह ने दलील दी कि किसानों को किसान मुद्दों तक ही सीमित रखना चाहिए। इस रूप में देश की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप के प्रति इस समूह एक तरह का भोलापन दिखाया। अपनी मांगों को मनवाने के लिए उसने फिर दिल्ली कूच किया, जिसे हरियाणा के पहले ही शंभू बॉर्डर पर रोक दिया गया। तब से वे हीं बैठे रहे हैं।
अब छह दिसंबर से उन्होंने फिर से दिल्ली आने की मुहिम शुरू की है, जिसको लेकर दो दिन उनका पुलिस से टकराव हो चुका है। किसानों की मांगों में एमएसपी की कानूनी गारंटी, कृषि कर्ज माफी, बिजली की कीमतें ना बढ़ाना, किसान और खेत में काम करने वाले मजदूरों के लिए पेंशन जैसी मांगें शामिल हैं। इसके अलावा वे 2021 के लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय, भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013 को बहाल करने और 2020-21 के आंदोलन में मरे किसानों के परिवारों के लिए मुआवजे की भी मांग कर रहे हैं। फिर भी आंदोलन का प्रभाव सीमित ही बना हुआ है।