यूरोपीय संसद के चुनाव में दक्षिणपंथी और धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को मिली जोरदार कामयाबी ने वहां की मध्यमार्गी व्यवस्था में एक तरह का भूकंप ला दिया है। फ्रांस में धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली लगभग 32 फीसदी वोट लेकर पहले स्थान पर रही। इस झटके से हिले राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संसद भंग कर नया चुनाव कराने का एलान तुरंत कर दिया। अब 30 जून को फ्रेंच संसद का चुनाव होगा। यूरोपीय निर्वाचन में मैक्रों की पार्टी को मेरी ली पेन की नेशनल रैली की तुलना में आधे वोट ही हासिल हुए। उधर जर्मन चांसलर ओलोफ शोल्ज की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी तीसरे नंबर पर खिसक गई। पहले नंबर तो परंपरागत कंजरवेटिव पार्टी सीडीयू रही, लेकिन उसके बाद का स्थान धुर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी ने हासिल कर लिया। कुल मिला कर नस्लीय पहचान आधारित, आव्रजक विरोधी, और यूरोपियन यूनियन विरोधी स्वर रखने वाली पार्टियों ने 720 सदस्यीय यूरोपीय संसद में अपनी उपस्थिति बढ़ा ली है। दूसरी तरफ सोशल डेमोक्रेट्स, मध्यमार्गी पार्टियों और ग्रीन पार्टियों को भारी नुकसान हुआ है।
ज्यादातर धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों में एक कॉमन फैक्टर उनका यूक्रेन युद्ध में यूरोपीय भूमिका का विरोधी होना है। उन्होंने यह कहानी बुनी है कि इस युद्ध के कारण यूरोप ऊर्जा संकट और महंगाई से ग्रस्त हुआ है, वहीं सरकारें अपना संसाधन अपनी जनता की कीमत यूक्रेन को दे रही हैं। चुनाव नतीजों का संदेश है कि मतदाताओं का बहुत बड़ा हिस्सा इस कथानक से आकर्षित हुआ है। इन चुनावों ने इस बात की पुष्टि की है कि पिछले सवा दो साल में यूरोप में बढ़ी मुसीबतों का असर अब वहां की राजनीतिक व्यवस्था पर होने लगा है। जर्मनी उद्योगों के बंद होने और आर्थिक विकास गिरने के कारण गंभीर संकट में है। उसका असर इन चुनावों में दिखा है। फ्रांस काफी समय से सामाजिक उथल-पुथल का शिकार है। उसका असर वहां हुआ है। ऐसे चुनाव नतीजों का अंदाजा पहले से था। अब इन नतीजों के दूरगामी परिणाम यूरोप में देखने को मिलेंगे। अगर अगले नवंबर में अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप फिर से राष्ट्रपति चुनाव जीत जाते हैं, तो यूरोपीय मध्यमार्ग का संकट और भी गंभीर हो जाएगा।