विश्व में भारत की आज जितनी भी हैसियत है, उसे बनाने में भारत के इंजीनियरों एवं टेक कर्मियों की भूमिका अहम रही है। इसीलिए यह चिंता का पहलू है कि भारत में ये जड़ें मजबूत होने के बजाय, कमजोर हो रही हैं।
किसी देश का भविष्य कैसा है, इसका अंदाजा लगाने का एक पैमाना यह है कि वहां साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित की शिक्षा का क्या हाल है। इन डिग्रियों को हासिल करने को लेकर समाज में कितना आकर्षण है और इन डिग्रीधारियों के लिए कैसे अवसर उपलब्ध हैं, ये दोनों महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। विश्व में भारत की आज जितनी भी हैसियत है, उसे बनाने में भारत के इंजीनियरों एवं टेक कर्मियों की भूमिका अहम रही है। इसीलिए यह चिंता का पहलू है कि भारत में ये जड़ें मजबूत होने के बजाय, कमजोर हो रही हैं। कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिएः कंप्यूटर साइंस में सीईटी के जरिए दाखिले के लिए उपलब्ध 637 सीटें इस वर्ष खाली रह गई हैं। सिविल और मेकेनिकल इंजीनियरिंग के कोर्स तो वैसे भी अपना आकर्षण खो रहे हैं।
सिविल इंजीनियरिंग की उपलब्ध 5,723 में से सिर्फ 2,883 सीटों पर दाखिला हुआ। मेकेनिकल इंजीनियरिंग की उपलब्ध 5,977 सीटों में से केवल 2,783 भरी जा सकी हैं। जबकि आम राय है कि सिविल और मेकेनिकल इंजीनियरिंग और उनसे जुड़ी अन्य शाखाएं इंजीनियरिंग की बुनियाद हैं। मगर इनके ग्रैजुएट्स के लिए नौकरियों के अवसर घटे हैं, तो इनके प्रति नौजवानों का आकर्षण भी घटा है। हालांकि इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर अधिक नौकरियां पैदा हो रही हैं, लेकिन भारतीय डिग्रीधारियों के साथ एक बड़ी समस्या गुणवत्ता की है। कुछ विशेषज्ञों ने तो यहां तक कहा है कि भारत में इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले लगभग 90 फीसदी छात्रों में वह कौशल नहीं होता, जिनकी जरूरत आधुनिक विज्ञान एवं इंजीनियरिंग में पड़ती है।
चूंकि डॉक्टरी और इंजीनियरिंग जैसी पढ़ाइयां धीरे-धीरे आम मध्य वर्ग की पहुंच से बाहर होती गई हैं, तो ज्यादातर दाखिला वैसे धनी छात्र ही लेते हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि व्यापक प्रतिस्पर्धा होती, तो उनके लिए एडमिशन पाना कठिन होता। मतलब यह कि ऐसी शिक्षा के लिए वास्तविक प्रतिस्पर्धा का दायरा सिमट गया है। इसका असर डिग्रीधारियों के कौशल पर पड़ा है। जबकि आज कंपनियां में मांग उच्च कौशल प्राप्त ऐसे नौजवानों की जो है, जो उन्नत हो रही तकनीक के साथ स्किल डेवलपमेंट कर सकें।